कार्तिक गया पूस है आया
कार्तिक गया पूस है आया, फिर से जगत जमाने को। कुदरत ने परपंच रचाया, तुझे मेरे गले लगाने को। दिन भर खेल रहा है जग से, आंख मिचौली सूरज छलिया, जमते बाग, ठिठुरती कलियां, शाम हुई सुनसान ये गलियां, गरमा गरम चाय की प्याली, होठों पर फिर से लगाने को कुदरत ने परपंच रचाया, तुझे मेरे गले लगाने को। ओ यारा हमने जो देखा, स्वप्न मनोरम, मनमोहक था, मधुर मिलन संभव, अब लेकिन, क्रूर जुदाई का मौसम था। बदल गये पैमाने जग के, मैं आया विदा करने को। कुदरत ने परपंच रचाया, तुझे मेरे गले लगाने को। दिन भर जो अलाव जले थे, उनसे कुछ अहसास न बदला, शीत गया न, सूरज पर से , छुन्ध का था जो, राज न बदला। मेरे चाँद मेरी, बाहों में, आ प्रीत अगन भड़काने को। कुदरत ने परपंच रचाया, तुझे मेरे गले लगाने को।