मिले नहीं तुम 279
मिले नहीं तुम इसी एक गम में, ये मन की राधा भटक रही है, कहा है तुमने तुम्हीं हो कण कण, तुम्हीं पर चाहत अटक रही है। तुम्हारी राधा के आँसुओं का, असर है कितना तुम्हें पता है, उसी की चाहत तुम्हारी शक्ति, उसी से सृष्टि का सिलसिला है, अगर वो रो दी बचेगा कुछ न, ये बात सबको खटक रही है। मिले नहीं तुम इसी एक गम में, ये मन की राधा भटक रही है। जो छोड़ देने की तुमने सोची, नहीं कभी फिर पधारे गोकुल, ओ कन्हा माता की आस सिमटी, हुए हैं यमुना के प्राण व्याकुल, कोई तो तोड़े, फिर आज मटकी गोपियाँ सारी मटक रही हैं। मिले नहीं तुम इसी एक गम में, ये मन की राधा भटक रही है। सुनो तो राधा के प्राण प्यारे, बिना तुम्हारे है सूना गोकुल, कोई नही जो खिला दे इनको, ये बाग सारे बने हैं मरुथल, ये चाँद पूनम का बुझ गया है, ये रात तारे झटक रही है। मिले नहीं तुम इसी एक गम में, ये मन की राधा भटक रही है। कभी कहा था मिलोगे फिर तुम, जीवन का जब पहर ढलेगा, हमारी चाहत का इस धरा पर, श्रृंगार अंतिम वही खिलेगा, हैं प्राण अटके हुए हमारे, नजर तुम्हीं पर सिमट रही है। मिले नहीं तुम इसी एक गम में, ये मन की राधा भटक रही है।