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Showing posts from 2019

ख़ता

तुम्हारी खुशबु बहका न दें मैं, कहीं कोई फिर खता न कर लूँ करीब जो इतने तुम आ गई हो, कही मैं तुमसे वफ़ा न कर लूं। खुद पर तो यकीन है मुझको, मगर दिल पर यकीन हो कैसे, तुम्हारी नज़रों में प्यार इतना, दुनिया को ही खफा न कर लूं। बहुत उदासी सी छा गई है, कहा है तुमने अब जाना होगा, चले गए जो तुम मेरे दिलबर, सांसो को मैं जुदा न कर लूं। नशीली आंखों में डूबा डूबा, करार दिल को बहुत है लेकिन, जुदाई तुमसे मिली जो मुझको, दुनिया को ही फना न कर दूं।

कैसे?

मैं जमाने को मेरा इश्क दिखाऊं कैसे जो हैं दुश्मन मैं उसे मीत बनाऊं कैसे। वो गया टूट मेरी चाहत का  सितारा देखो, मन के आकाश में फिर उसको सजाऊँ कैसे। फिर न आऊंगा तेरे दर पर, कसम है मुझको, बस बता दे तेरी गलियों से मैं जाऊं कैसे। और भी हैं तो सितम मुझपर ही ढा लो आकर, मुझको लत सी है तेरी, आदत ये भुलाऊं कैसे। रोज बह जाता हूँ खुशबू में घटाओं में तेरी, रोज आता है ये सैलाब, मैं बच जाऊँ कैसे। 09 दिसंबर, 2019 मैं जमाने को मेरा इश्क दिखाऊंगा कभी  जो है दुश्मन उन्हें दोस्त बनाऊंगा कभी  था गया टूट मेरी चाहत का सितारा एक दिन मन के आकाश में फिर उसको सजाऊंगा कभी  छोड़ जाता हूं तेरी खातिर तेरा दर मान मगर,  यहीं पर लौट मैं मेरा घर भी बनाऊंगा कभी। ओ सितमगर तेरा हर वार मुझे कबूल है पर, तेरी आदत को दिल से मैं भुलाऊंगा कभी । तोड़ दूंगा तेरी जुल्फों की इन जंजीरों को, कैद से तेरी खुद को मैं छुड़ाऊंगा कभी।

काश कि भारत ऐसा बने

न कोई बच्ची, को नाले में फेंक कर आएगा। लड़का लड़की दोनो को बराबर माना जाएगा। न किसी बच्चो या महिला को बलात्कार का डर सताएगा, फूल से कोमल तन मन को, हरगिज कुचला न जाएगा।। न कोई इंसान मोब लीनचिंग में मारा जाएगा, और न देश मांस निर्यात में नंबर वन पर आएगा। सब उस ईश्वर के बच्चे है, एक बराबर एक ही मान कर, न कोई कुरान, गीता का "ईश्वर एक है" का पाठ भुलायेगा। कानून से डरेंगे सब, न्याय सभी को समय पर मिल जाएगा। न कोई पुलिस वाला 100 रुपये में, मान जाएगा। एक दूसरे के साथ चलेंगे, हर घर मे उजियाला आएगा, न कोई सड़क पर घायल को छोड़, घर को जाएगा। न झूठ का कारोबार चलेगा, नेता झूठा न जीत पायेगा न कोई धर्म, जात, पैसा, दारू में वोट बेच कर आएगा। शिक्षा का सम्मान सभी को, हर बच्चा स्कूल जाएगा, भीख मांगता कोई जब लाल बत्ती पर न पायेगा। मिलेगा सबको रोजगार, न बेरोजगार कहलायेगा, ईजीनियरिंग करके कोई कहीं, रिक्शा ठेला न चलाएगा। चमचा बनकर ये मीडिया, झूठी खबरें न दिखयेगा। नोट में चिप घंटो तक, लोकतंत्र से न खेला जाएगा। सब अपने कामो को मंदिर की भांति पूजेंगे, अखबार भी सच लिखकर, आईना बन जायेगा।

कश्मकश

शाम सुहानी हो जाएगी, तुमसे दो बातें जो कर लूँ मन मोहे, तूं, संध्या आभा, किसको मैं यादों में भर लूँ। प्रेम के इस झरने मे बैठे, क्या जीवन ये जी पाऊँगा। खो देने की आशंका से, कैसे पर खुशियों को तज दूँ। अटल सत्य है जीवन मानो, मृत्यु क्रिया की प्रतिक्रिया। कैसे मैं एक प्रतिक्रिया पर, गिरवी सारी क्रिया रख दूँ। जाने या अनजाने में हों, पाप मगर हो ही जाते है, कर्म करूँ, कुछ पुण्य कमाऊं, पाप या बस घाटों पर तज दूँ। सोच रहा रसमय सृष्टि से, क्या दो बूंदे पी पाऊँगा। परवशता का ढ़ोल पीटकर, कैसे मैं कर्मो को तज दूँ।

तुम इश्क़ हमारा भूलो

तुम इश्क़ हमारा भूलो अधिकार तुम्हें है लेकिन, तुमको दिल ये भुला दे, हमको स्वीकार नही है। लाख कहो तुम हमसे, तुमको नही उल्फत लेकिन तुम खुद को तो समझा लो, तुम्हें हमसे प्यार नहीं है दिल काबू में आ जाये, तो बंजर हो जाये धरती, दिल का उन्मुक्त न होना, प्रभु को स्वीकार नही है। आधार जगत में जीवन का प्रेम रहा है मानो, प्रेम बिना खुद ईश्वर, का ही आधार नही है। अब मान लिया तो आओ, नव प्रेम के अंकुर सींचें, अब ये न कहना तुमको, मुझसे ही प्यार नही है।

स्वप्न नगरी

एक शहर बनाऊं ऐसा, जिसमे कोई गैर नहींं हो। सपने सबके हों पूरे, कोई दिल में बैर नहींं हो। हों रातें काली लेकिन,  कोई बेटी न डर पाए। बेफिक्र सभी मंजिल पर,  वो आगे बढ़ती जाए। जो उसका रास्ता रोके, ऐसी अंधेर नहींं हो। सपने सबके हों पूरे, कोई दिल में बैर नहींं हो। जिस आंगन में हों कान्हा, वही गुरवाणी भी गाएँ वहीं बैठें नमाजी सारे, वहीं यशु की प्रेयर गाएँ। वहीं जैन, बुद्ध की शिक्षा, अज्ञान की खैर नहींं हो। सपने सबके हों पूरे, कोई दिल में बैर नहींं हो। इस नगर में कोई मानव, कभी भूखा न सो पाए। कोई बच्चा बीच सड़क पर, न भीख मांगने जाए। सबको जीवन की सुविधा, पैसे की मेहर नहींं हो। सपने सबके हों पूरे, कोई दिल में बैर नहीं हो। हो राजा न अभिमानी, करें मंत्री न मनमानी। जहां लोक का तंत्र रहे बस, जहाँ न्याय में हो आसानी। निष्पक्ष जहां हो खबरें, सत्ता का जोर नहीं हो। सपने सबके हों पूरे, कोई दिल में बैर नहींं हो। हो साफ हवा ओ पानी, हों चिड़ियों की भी कहानी। जहां तितली जुगनू डोलें, है स्वप्न मेरे आसमानी। पर काश ये सच हो जाएं, बस इसमे देर नहींं हो। सपने सबके हों पूरे, कोई दिल में बैर नहीं हो।

बलिप्रथा और मांसाहार

किसी के घर मे कोई बीमार पर गया या फिर ऐसा कुछ हुआ तो तो तुरंत मन्नत मांग लेते हैं।और बाद में जब बके मन मुताबिक काम हो जाता है तो उन्हें लगता है हम कबूल थे इसलिए ये काम पूरा हुआ।और जाकर बलि दे देते हैं। किसी का कोई अपना खो गया तांत्रिक ने बोला बलि दो तो मिल जाएगा। लेकिन ये सब सिर्फ अंधविश्वास है। ये सिर्फ इसलिए बोला जाता है कि वो लोग बाद में उस बलि जीव से पार्टी करते हैं। आज के दिन कोई भी तांत्रिक हो सब शराब, नशे के आदी होते है। तो बकरा मिल गया तो हो गई पार्टी।  मेरे हिसाब से जो मेरा मन कहता है कि बलि प्रथा प्राचीन समय से चली आ रही है। विगत में मानव जंगल मे रहता था और विकास के चरण में था। वो शिकार करता था। उसने सूर्य इत्यादि की पूजा शुरू कर दी थी  वो शिकार भी करता था और खेती भी शुरू की। धीरे धीरे खेती बढ़ने लगी शिकार कम हुआ तो मानव ने शिकार के लिए नियत समय तय किया होगा की जब खेती कम होगी तब शिकार करेंगे। इसलिए देखिए दोनो नवराते दोनो मुख्य फसल रवी और खरीफ के लगभग मध्य में पड़ते है उसके बाद ही खेती शुरू होती है।  मेरे उसी समय शिकार करके या पकड़ कर पशु लाये जाते होंगे। कोई ज्यादा शिकार करता ह

ब्रेकिंग न्यूज़ और पत्रकार

कैसी बारूदी हवा चली कि बुझते,  आजादी के सब दीप महान, आज कलुष सा सबका चेहरा, सबने ही लूटा देश महान। अगर कोई सच मे देश के न्यूज़ चैनल विशेषकर शाम को देखता है तो सबकी नज़रों में आज आजादी के नेता भी बंट गए है। पटेल को बड़ा दिखाने के लिए नेहरू को छोटा किया जा रहा है। गांधी की काट के लिए सावरकर को सामने लाया जा रहा है। मैं समझ नही पा रहा कि कैसे सिर्फ मूर्ति बना देने से पटेल बड़े हो जाएंगे? वो वैसे ही बड़े है, सरदार सरोवर बांध सबसे बड़ा है उससे बिजली भी बनेगी दूसरे काम भी होंगे। उसका उदघाटन किसने किया? कुछ ऐसा करना जिससे देश का भला ही जरूरी है या कोई मूर्ति बनवाना। कोई भी तथ्य नही सिर्फ एंकर की बस बातें। न्यूज़ पेपर में खबरें सरकार के विज्ञापन की तरह प्रकाशित होती हैं। सरकार की प्रशंशा पहले पेज पर बड़े खबर और उसकी गलतियां अंदर के पेज पर छुपा कर। क्या सच मे आज पत्रकारिता हो रही है या सिर्फ चमचागिरी हो रही है? पता नही चल पा रहा। सिर्फ चैनल वाले अपने trp के चक्कर में सिर्फ वही खबर दिखाते है जिससे कि जनता एक वोट बैंक में बदलने लगे। मीडिया अगर लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है तो उसका एकमात्र कर्म सरकार की निष्प

G गॉड

एक बार नारद जी भगवान विष्णु की शरण मे गए नारायण, नारायण प्रभु जैसा कि आपने गीता में कहा था कि ईश्वर सर्वव्यापी है। सर्वत्र है। सर्वज्ञ है। सर्वशक्तिमान है। हज़ारो आंखे है जिसके। हज़ारो हाथ है जिसके। हज़ारो मस्तिष्क है। अजर है अमर है देश समाज की सीमाओं के परे है। जन्म मृत्यु से परे है अज्ञानता जिसका कुछ नही बिगाड़ सकती। जिसको जाना भी नही जा सकता। जिसको बांधा नही जा सकता। सब जिसको समझते है कि मैं जानता हूँ लेकिन कोई नही जानता। जिसको सब समझते है मैं नही जानता वही जानता है। जी गुणों से भरा है। जो निर्गुण भी है। जो साकार है। जो निराकार भी है। जिसके हज़ारो रूप है, उसको कोई देख नही सकता। लेकिन वो सबमें व्याप्त है। प्रभु आपने कहा था कि आप सबको उसके भाव अनुसार मिलते हो "जाकि रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखहीं टिन तैसी" तो क्या आप उसी प्रकार कलयुग में क्या मानव के साथ आप नही होंगे? मानव कलयुग से अकेला कैसे लड़ पायेगा? अरे नारद इतने सवाल। मुझे मालूम है मानव मात्र की भलाई के लिए तुम सदा चिंतित रहते हो यही ये बताता है कि तुम कितने सहृदय हो। भगवान ने नारद जी को रोकते हुए

रॉन्ग नंबर भाग 4 से 6 (सम्पुर्ण कहानी)

जैसा आपने अब तक पढ़ा कि कैसे रमेश की दोस्ती मीनू से एक "रॉन्ग नंबर" के कारण हो जाती है। जिसके बारे मे उसका दोस्त सतेन्द्र सब जानता है। रमेश से दोस्ती टूटने के कुछ दिनो बाद मीनू सतेन्द्र को ही प्रेम निवेदन कर देती है।  अब आगे। सतेन्द्र आज उस दोराहे पर आ गया था जिसके बारे मे उसने कभी सोचा भी नही था। अगर मीनू को हाँ बोल देता है तो रमेश क्या सोचेगा, उसकी दोस्ती खतम ना हो जाये। अगर न बोल दे तो मीनू को दिल की बिमारी की वजह से उसे कुछ हो गया तो? फिर उसने अपनी चीन वाली दोस्त से भी बात की जो उसे मन ही मन प्यार करती थी लेकिन उनकी शादी होना ना मुमकिन थी। उसने भी सतेन्द्र को समझाया कि जिस लड़की ने पैसो की वजह से रमेश का साथ छोड़ दिया उसकी सच्चाई का क्या भरोसा। तुम उसकी मदद कर रहे हो लेकिन क्या वो तुम्हरा साथ तुम्हारे खराब टाईम मे देगी। तुम सोच लो तुमको क्या करना है लेकिन मुझे भूल न जाना कभी। लेकिन कहते है न कि समय इन्सान की बुद्धि पर एक ऐसा आवरण डाल देता है कि इन्सान उसके जाल मे फँसता ही चला जाता है। नियती ने तय कर दिया था सतेन्द्र का भाग्य। सतेन्द्र ने फैसला किया चूंकि रमेश तो मीनू क

रॉन्ग नंबर भाग 1 से 3 (सम्पुर्ण कहानी)

आज मैने पहली कहानी लिखनी शुरु की। मेरे एक मित्र जो इसी कहानी के पात्र है ने मुझे ये सुअवसर प्रदान किया की मै पहली कहानी लिख सकूँ। उनका आभार। आप सब मित्रों से अनुरोध है की मेरा मार्गदर्शन करें, गल्तियों के लिये मुझे माफ करें, और मुझे बताये जिससे मे इस विधा मे कुछ सीख ले कर आगे बढ़ पाऊँ। आज ने आधुनिक युग में प्यार बिना देखे हो जाता है ये सही है, क्योंकि शायद हम इतने सोशल हो गए है कि आज पास कोई दोस्त हो न हो लेकिन सोशल मीडिया पर हज़ारो लोग दोस्त है। और प्यार प्यार न होकर खेल जैसा हो गया है। ये बात 70% ही सही हो लेकिन सही है। वैसे भी ये काम हमेशा से होता रहा है अपने मतलब के लिए प्यार और फिर उसे छोड़ देना। ये प्यार क्या है एक खिलौना है, टूट जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है ट्रिन ट्रिन मोबाइल पर लगातार जा रही घंटी के बाद किसी लड़की ने फ़ोन उठाया। अपने दोस्त को किये फ़ोन पर लड़की की आवाज सुन कर रमेश चौक गया था। रमेश -- हल्लौ..हल्लौ.. कौन बोल रहा है। उधर से आवाज आई-- आप बताईये आप कौन बोल रहे हो? कॉल अपने किया है। उधर से आई मीठी आवाज मे रमेश ऐसा खो गया जैसे की रेगिस्तान की मरुभूमि पर सरिता क

हंस लेने दो

दर्द छुपा लेंगे शायद, हंस लेते है, हंस लेने दो। है तोड़ यही बस दुनिया की, गम पीकर बस हंस लेने दो। सब बात करेंगे मंजिल की, कोई साथ न देगा लेकिन, जब ऊधरेंगी गम की परतें, कोई हाथ न देगा लेकिन, जग नोच न ले, ये पुष्प से स्वप्न, परतों पर परत कस लेने दो। बस दर्द छुपा लेंगे शायद, हंस लेते है, हंस लेने दो। सब दुनिया तुमसे बेहतर, अहसास यही दे जाते, नीचे गिरते को सब मिलकर, फिर ठोकर एक लगाते, है आज पड़ा पत्थर मुझको, रूप नया रच लेने दो। दर्द छुपा लेंगे शायद, हंस लेते है, हंस लेने दो। बेरंग स्वप्न की दुनिया तो, कोई रंग ये जीवन क्यों चाहे? सब चाह लुटे तो चाह नई, नव स्वप्न सजाना क्यों चाहे? फिर गीत नए, अरमान नए, प्रतिमान नए, रच लेने दो। बस दर्द छुपा लेंगे शायद, हंस लेते है, हंस लेने दो।

रावण

कितने रावन है घूम रहे, देखो आज जमाने में। दुनिया सब कुछ भूल गई, पुतला एक जलाने में। था रावण, परनारी को जिसने, हरा था लेकिन छुआ नही था, साधु सज्जन सब लगे हुए है परनारी हथियाने में। कलयुग का ले नाम तो देखो, मानव कितना गिरने लगा, बूढ़े बच्चे सबकी लूटती, इज्जत आज जमाने मे। तेजाब हाथ मे लेकर फिरते, जो मिला न उसको मिटा देंगे, जो चाहा मिल जाये सबको, मुमकिन कहाँ जमाने मे। बस पुतलों के जलने भर से, नाश बदी का हो जाता, तो कोई भी पाप न होता, हम माहिर पुतले जलाने में। हे राम! जगो, सबके मन मे, छुपकर बैठे से क्या होगा? रावण का प्रतिकार करो, फिर छाया पूरे जमाने मे। बस दीप जला कर अंधियारो के, तूफान कैसे ये हारेंगे, प्रदीप्त ये तन मन करना होगा, तब होगी चमक जमाने मे।

कल्पवृक्ष

कलयुग में एक बार नारद जी घूमते घूमते हिमालय के एक पर्वत पर ये सोच कर रुक गए कि यहां शांति से कुछ समय ध्यान कर लेता हूँ कि तभी वहां एक बुजुर्ग मानव शिखर के नीचे गहरी खाई में झांकता हुआ दिखा। उनको देखते ही उसकी मनोदशा का ज्ञान हो गया। रुको! हे मानव! नारद जी ने आवाज लगाई। बुजुर्ग ने चौंक कर पीछे देखा। शायद उसे उस समय यहां किसी के होने का अंदेशा नहीं था। साधु महाराज आप यहां। बुजुर्ग हड़बड़ाते हुए बोला। हम तो कभी भी और कहीं भी आ जा सकते हैं, साधु होते ही विचरण के लिए हैं। वहां गहरी खाई में क्या ढूंढ रहे थे। मृत्यु ऐसे यहां नहीं मिलती। नारद जी ने कहा। वो बुजुर्ग ये बात सुनकर विस्मय सहित शर्मिंदा होते हुए बोले- नहीं साधु महाराज ऐसा कुछ नहीं है। तो फिर कैसा है? बताओ क्या पता तुम्हारी समस्या का कोई निदान मेरे पास हो। नारद जी ने अपनी पहचान बिना बताए बोला। बुजुर्ग ने नारद जी से कहा- जीवन में सब देखा। लेकिन अब जिस पत्नी, पुत्र के लिए सब किया वो...... कहते कहते वो बुजुर्ग चुप हो गया। नारद जी ने कहा चलो में तुमको एक कथा सुनाता हूँ, सुनोगे? और तुम जो कुछ भी खोज रहे थे वो कथा के बाद भी खोज सकते

जीना होगा

सुनी कहानी थी टूटे दिल की, मगर कभी भी यकीन नही था, तुम्हारी जुल्फों के दायरे से, बिछड़ के हमको भी जीना होगा। सनम कभी तो हमें भी देखो ये पांव चल चल के छिल गए है, तुम्हारे दर के लगा के चक्कर, जहां की नजरों में गिर गए है। मगर कभी भी बता न पाया, है इश्क़ तुमको दिखा न पाया, कभी भी दिल को न भान था ये, कि गम जुदाई का पीना होगा, तुम्हें यूं दिल मे कभी छुपा कर, बिछड़ के हमको भी जीना होगा। वो साया जो था हमारा अपना, हुई अंधेरी जा छुप गया है, तुम्हारे जाते ही मेरा जीवन, टूटी चक्की सा रुक गया है, कोई नही है जो देखे आकर, बस पत्थरों में बदल गया हूँ, कभी भी दिल को न भान था ये, जख्मो को खुद ही सीना होगा, तुम्हारे साये से दूर होकर, बिछड़ के हमको भी जीना होगा।

हिंदी डे

हिंदी दिवस और इसके बाद शुरू होने वाला हिंदी पखवारा जो अक्सर 15 दिन तक चलता है का आरंभ हो चुका है। मैं बचपन से आज तक यह नहीं समझ पाया हिंदी हमारी मातृ भाषा है, हमारी संवैधानिक राष्ट्रभाषा है, उसके लिए क्या ये  एक दिन सही सम्मान दे पाता है, ये बिल्कुल वैसा ही है जैसे प्रेम है जैसे प्रेम जैसे अथाह, विशाल भाव के लिए एक दिन मनना शुरू कर दिया, ममता को सम्मान देने के लिए मदर्स डे, पिता के लिए फादर्स डे, मनाना शुरू कर दिया। टीचर्स डे भी और भी बहुत से दिवस। लेकिन क्या ये सही सम्मान है। क्या यह एक पखवारा हिंदी का गुणगान करके, इतना करके ही काम हो जाएगा सही में हमें कोई हिंदी दिवस मनाने की जरूरत है। मैं नही जानता कि इंग्लैंड में कोई इंग्लिश दिवस भी मनाया जाता है क्यों क्या वह अपनी मातृभाषा से प्यार नहीं करते क्या उनको अपनी मातृभाषा की अहमियत का नहीं पता। पता है जरुर होगा तभी उन्होंने अपनी भाषा को वैश्विक स्तर पर मान सम्मान दिलाया है और हम हिंदी दिवस मना रहे हैं हिंदी दिवस को भी हमने इंग्लिश के सम्मान में हिंदी डे कर दिया है। क्या यही सच्ची हिंदी भक्ति है? क्या सही में हिंदी का हिंदी को सही सम्म

हम भारत हैं

भारत के भीतर बैठे लालची नेता, अफसर, और जो भी लोग है उनके, और भारत के किसी भी हिस्से पर आंख लगाए विदेशी ताकतों के लिए ..... एक एक भारतवासी की चेतावनी... स्वर्ग विदित तुमको भी हो, हम देव भूमि, हम भारत है। मृत्यु से भी न घबराते, हम कर्म पुजारी भारत हैं। कोई भी विपदा आ जाये, हमने रुकना न सीखा, शिखरों को सब रौंद चुके, गीता अनुपालक भारत हैं। जब चाहेंगे आना होगा, धरती पर विधाता को, हम प्रह्लाद की भक्ति का अंश, प्रेम हैं हम ही भारत हैं। भूल न जाना स्वर्ग वासिनी, हम गंगा भूमि पर लाये, भगीरथ के हम ही वंशज, हम जिद्दी हम भारत हैं। अगर ठान लें, नचिकेता बन, यम के द्वार पर जा बैठेंगे, शेरों के दांतो को गिनते,  हम भरत के वंशज भारत हैं। कोई शत्रु नही है सीखा, हमने पाठ कुटुंकम का, कोई हमको न आंख दिखाए, हम वीर शिवा के भारत हैं। सब धर्मों के फूल लगे तो, स्वर्ग से भी सुंदर बनता, बस रक्षक इस उपवन के हम, देव पुत्र हम भारत हैं। मार्ग अगर आ रोक ले सिंधु, या खुद अटल हिमालय भी, बांध दें सेतु, काट दें पर्वत, हम दशरथ मांझी भारत हैं। एक बार तो सोच ले कोई, हमसे टकराने से पहले, ब्रह्म

प्रेम

कदम ये थम के उठ रहे थे, दूर जाने को प्रिये  तुम्हारे दर को छोड़कर, अगर जिए तो क्या जिए। ना भूली रात चांदनी, तू छत पर आई थी कभी, मैं कैसे उनको छोड़ दूं, जो लम्हे प्यार में जिए। भूमि थी मरुस्थली, और मन पर तुम थे छा गए, बाढ़ थी बस प्रेम की, बसे तुम सांस में प्रिये। बड़ी सुहानी रात थी, वो रात थी कि बात थी, बहुत ही दूर तक गए, हाथ हाथों में लिए। प्रेम का अथाह सिंधु, मैं कभी का पा चुका, तुम्हारी जुल्फों के तले, जो खेल प्रेम के किये। नवप्रेम की तरुनता, अब हो गई कठोरतम, तुमने जब से मंजिले, और रास्ते बदल लिए। कोई नया जो गीत था, विरह ही था वो प्रीत का, शब्दो मे हंसी लिखी, थे नीर नयनो में लिए। नव सृजन की कल्पना, में थे रचे महल कई, जो धूल पल में हो गए, वार तुमने यूं किये।