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Showing posts from August, 2019

विश्वास

मजबूर बहुत है लेकिन, जो करते कर न पाते, हर ओर अंधेरी छाई, जिस और भी हम है जाते। शायद कोई खेल है उसका, दुनिया मे हमे रुलाना, कोई काम नही है उसको, बस हमको ही है सताना। अब क्या हो कुछ भी बाकी, कोई राह नजर तो आये, ऐसा न हो ये जीवन मिट्टी में मिल जाये। अब वक्त कोई तो थामे, गिरतो को कोई उठाये, पर दुनिया करती उल्टा, पीछे से मार गिराए। तू देख तुझे भी एक दिन, मुझसे झुकना ही होगा, तू फेंक कोई भी पासा, तुझको रुकना ही होगा। तेरे एक चाहत से, कैसे मैं रुक जाऊं, है भाग्य विधाता लेकिन, मैं कर्म को क्यों बिसराऊ।

वक़्त

कुछ पल में सारे रिश्ते, बस टूट गए हैं छन्न से। जब से लोगो ने जाना, अब वक़्त बुरा है हमारा। चाहत की सारी महफ़िल, ख्वाबो में आ सिमटी है, हां टूट गया हूँ लेकिन, मैं मन से नही हूँ हारा। पग चाहे या न चाहे, हमको तो चलना होगा, सपने सब सच करने को, नियति से लड़ना होगा, अब तक जितना टूटे पर, फिर से अब बनना होगा, नव पथ में हिम्मत का ही, बस होगा एक सहारा, हां टूट गया हूँ लेकिन, मैं मन से नही हूँ हारा। सच ये भी जीवन का है, कल, आज न कल सा होगा, पल भर में बदलेगा ये, बदलाब अटल, सो होगा, अब टूट रहे जो मुझसे, कल नव जज्बात जुड़ेंगे, फिर अम्बर में चमकेगा, जो टूटा आज सितारा। हां टूट गया हूँ लेकिन, मैं मन से नही हूँ हारा।

कान्हा आओ

किसी रूप में फिर तुम आओ मानव पर उपकार करो। शिशुपाल और कंस, दुर्योधन, सब का फिर संहार करो। गीता के हे पुण्य रचियेता, भारत के हे महानायक, मुरलीधर, ब्रिज के कान्हा, सम्पूर्ण सृष्टि के हे पालक, एक बस चीर हरण पर तुमने वंश समूल संहार किया, कंस को भी उसके ही, कर्मो का उपहार दिया, आज दमित होती फिर नारी, कुछ तो तारणहार करो। किसी रूप में फिर तुम आओ मानव पर उपकार करो। बस कलयुग में मानव ने, अपनो पर प्रहार किया है, दो पल जो थक कर के बैठा, पीछे से ही वार किया है, तुमने एक सुदामा के पग, नयन नीर से धो डालें थे, आज सुदामाओ का ही देखो, मित्रों ने संहार किया है, तेरे अंशो पर जीवन भारी, कुछ तो तारणहार करो। किसी रूप में फिर तुम आओ मानव पर उपकार करो। प्रतिध्वनी पत्रिका अगस्त 2020

अन्याय

भाग 1 हे राम! तू मर्यादा का, उत्कृष्ठ शिखर है ये माना, पर सीता पर अन्याय के, दोष का भागी तू भी है। चंद लोगो के कहने से, क्या असत्य, सत्य हो जाएगा, कलयुग में झूठे न्यायाधीश, इसका सहभागी तू भी है। झूठी बात कहै कोई, उस पर ही न्याय विधान बना, कैसे न हो, रोती सीता के, आंसू का अपराधी तू भी है। लोकापवाद से बस बचने को, त्याग सत्य को कैसे दिया, अब तक जो जारी नारी पर, अन्याय, सहभागी तू भी है माना कि एक अवतार सही, तुझको पूजे संसार सही, नारी किस्मत में दर्द लिखा, इसका लेखाधिकारी तू भी है। गर आज कोई इस कलयुग में, नारी को कोई अधिकार न दे, कुछ किया नही लेकिन थोड़ा, इसका तो भागी तू भी है। जब चौदह वर्ष की बात हुई, सब त्याग सिया भी साथ हुई, पर अब भी नारी अविश्वासी है, है पुरुष अपराधी, कुछ तू भी है। भाग 2 जब अन्याय लिखा तो मन मे एक विचार था कि राम भी दुखी थे बिना सीता के, तभी सोचा कि उसपर भी कुछ लिखने का तुच्छ प्रयास करूंगा, लेकिन जब लिखने लगा तो राम के दुखी होने का कोई कारण ही नज़र नही आया, दुख कैसा दुख और क्यों दुख? जब सच सामने था तो किन्ही लोगो की बातों में आकर झूठा न्याय

खो गई मानवता

जो कभी था बुद्ध की धरती, वहां ये क्या हुआ है, आज मानव अस्मिता पर, क्यों लगा धब्बा यहां है। डोल गया सिद्धार्थ का मन, एक बुढापा देख कर के, दिखता नही क्यों रे जीवन, मार्ग में सकुचा पड़ा है। आज मानव बंट गया है, धर्म, जाति, और देश मे, वसुधैव कुटुम्बकम् का, सनातन अमर घोष कहा है आज तक पूजा था जिसको, वो परी, अबोध कन्या, नोच डाला भेड़ियों सा, मानवता का बोध कहाँ है। था खड़ा होकर तू बोला, बीच रणभूमि में कान्हा, तू चराचर में अगर क्यों, ऊंच नीच का भेद यहां है। आज तो रूठे सभी वो, सुसमय जो मीत थे, टूटते गिरते को थामे, ऐसी थी वो प्रीत कहाँ है। खड़ाऊं रखकर पूजता था, राज्य मिला, न प्रेम त्यागा, आज भाई भाई दुश्मन, खो गया क्यों भरत यहां है। दैनिक वर्तमान अंकुर में प्रकाशित होने को 31 अगस्त भेजा गया

मीत

कोई मीत तुम्हारे जैसा, हमको भी मिल जाता, सजता ये जीवन नीरस, अंधियारा सब छंट जाता, तुमसे बेहतर तो जग में, कोई अपना है न पराया, हूँ ढूंढ रहा मैं कब से, कोई मीत न तुझसा पाता। वो सब जो कल तक संग थे, है वक़्त तो सब हैं भूले। हूँ द्वार खड़ा मैं कब से, कोई मीत न दौड़ा आता। मैं वक़्त का मारा कान्हा, हूँ जैसे तेरा सुदामा, तेरी रहमत का कोई, पैगाम न लेकिन तक आता।