विकास और प्रकृति
कितने राजाओं के वैभव, कितने रंकों की झौपड़ियां धूल हुईं, कितने विकास की फुलझिड़यां, देख शमशान का मूल हुईं। क्यों-कर खेल रहा सृष्टि से, मानव का अधिकार नहीं है, सबसे अद्भुत रचना ब्रम्हा की, लेकिन तू भगवान नहीं हैं। यदा यदा हि धर्मस्य में, श्रीकृष्ण यही बतलाते हैं, जो बाधक बनते सृष्टि कर्म में, तो खुद वो उसे मिटाते हैं। हर तरफ क्रंदन मानव का, देख मेरा मन बहुत ही रोता, कैसा विकास किया हमने, ऐसा कहर है हमपर टूटा। जरा सी पलकों के हिलने से, देख तेरा क्या हाल हुआ है। सुन ध्वनि ये, बिचलित है पर, क्रोधित नहीं महाकाल हुआ है। मानवता का भविष्य सुरक्षित, प्रकृति से कर, बैर नही हैं, कर विकास प्रकृति के संग, वरना तेरी खैर नहीं हैं। --नेपाल भूकंप की पृष्टभूमि पर लिखी गई--