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Showing posts from September, 2019

रावण

कितने रावन है घूम रहे, देखो आज जमाने में। दुनिया सब कुछ भूल गई, पुतला एक जलाने में। था रावण, परनारी को जिसने, हरा था लेकिन छुआ नही था, साधु सज्जन सब लगे हुए है परनारी हथियाने में। कलयुग का ले नाम तो देखो, मानव कितना गिरने लगा, बूढ़े बच्चे सबकी लूटती, इज्जत आज जमाने मे। तेजाब हाथ मे लेकर फिरते, जो मिला न उसको मिटा देंगे, जो चाहा मिल जाये सबको, मुमकिन कहाँ जमाने मे। बस पुतलों के जलने भर से, नाश बदी का हो जाता, तो कोई भी पाप न होता, हम माहिर पुतले जलाने में। हे राम! जगो, सबके मन मे, छुपकर बैठे से क्या होगा? रावण का प्रतिकार करो, फिर छाया पूरे जमाने मे। बस दीप जला कर अंधियारो के, तूफान कैसे ये हारेंगे, प्रदीप्त ये तन मन करना होगा, तब होगी चमक जमाने मे।

कल्पवृक्ष

कलयुग में एक बार नारद जी घूमते घूमते हिमालय के एक पर्वत पर ये सोच कर रुक गए कि यहां शांति से कुछ समय ध्यान कर लेता हूँ कि तभी वहां एक बुजुर्ग मानव शिखर के नीचे गहरी खाई में झांकता हुआ दिखा। उनको देखते ही उसकी मनोदशा का ज्ञान हो गया। रुको! हे मानव! नारद जी ने आवाज लगाई। बुजुर्ग ने चौंक कर पीछे देखा। शायद उसे उस समय यहां किसी के होने का अंदेशा नहीं था। साधु महाराज आप यहां। बुजुर्ग हड़बड़ाते हुए बोला। हम तो कभी भी और कहीं भी आ जा सकते हैं, साधु होते ही विचरण के लिए हैं। वहां गहरी खाई में क्या ढूंढ रहे थे। मृत्यु ऐसे यहां नहीं मिलती। नारद जी ने कहा। वो बुजुर्ग ये बात सुनकर विस्मय सहित शर्मिंदा होते हुए बोले- नहीं साधु महाराज ऐसा कुछ नहीं है। तो फिर कैसा है? बताओ क्या पता तुम्हारी समस्या का कोई निदान मेरे पास हो। नारद जी ने अपनी पहचान बिना बताए बोला। बुजुर्ग ने नारद जी से कहा- जीवन में सब देखा। लेकिन अब जिस पत्नी, पुत्र के लिए सब किया वो...... कहते कहते वो बुजुर्ग चुप हो गया। नारद जी ने कहा चलो में तुमको एक कथा सुनाता हूँ, सुनोगे? और तुम जो कुछ भी खोज रहे थे वो कथा के बाद भी खोज सकते

जीना होगा

सुनी कहानी थी टूटे दिल की, मगर कभी भी यकीन नही था, तुम्हारी जुल्फों के दायरे से, बिछड़ के हमको भी जीना होगा। सनम कभी तो हमें भी देखो ये पांव चल चल के छिल गए है, तुम्हारे दर के लगा के चक्कर, जहां की नजरों में गिर गए है। मगर कभी भी बता न पाया, है इश्क़ तुमको दिखा न पाया, कभी भी दिल को न भान था ये, कि गम जुदाई का पीना होगा, तुम्हें यूं दिल मे कभी छुपा कर, बिछड़ के हमको भी जीना होगा। वो साया जो था हमारा अपना, हुई अंधेरी जा छुप गया है, तुम्हारे जाते ही मेरा जीवन, टूटी चक्की सा रुक गया है, कोई नही है जो देखे आकर, बस पत्थरों में बदल गया हूँ, कभी भी दिल को न भान था ये, जख्मो को खुद ही सीना होगा, तुम्हारे साये से दूर होकर, बिछड़ के हमको भी जीना होगा।

हिंदी डे

हिंदी दिवस और इसके बाद शुरू होने वाला हिंदी पखवारा जो अक्सर 15 दिन तक चलता है का आरंभ हो चुका है। मैं बचपन से आज तक यह नहीं समझ पाया हिंदी हमारी मातृ भाषा है, हमारी संवैधानिक राष्ट्रभाषा है, उसके लिए क्या ये  एक दिन सही सम्मान दे पाता है, ये बिल्कुल वैसा ही है जैसे प्रेम है जैसे प्रेम जैसे अथाह, विशाल भाव के लिए एक दिन मनना शुरू कर दिया, ममता को सम्मान देने के लिए मदर्स डे, पिता के लिए फादर्स डे, मनाना शुरू कर दिया। टीचर्स डे भी और भी बहुत से दिवस। लेकिन क्या ये सही सम्मान है। क्या यह एक पखवारा हिंदी का गुणगान करके, इतना करके ही काम हो जाएगा सही में हमें कोई हिंदी दिवस मनाने की जरूरत है। मैं नही जानता कि इंग्लैंड में कोई इंग्लिश दिवस भी मनाया जाता है क्यों क्या वह अपनी मातृभाषा से प्यार नहीं करते क्या उनको अपनी मातृभाषा की अहमियत का नहीं पता। पता है जरुर होगा तभी उन्होंने अपनी भाषा को वैश्विक स्तर पर मान सम्मान दिलाया है और हम हिंदी दिवस मना रहे हैं हिंदी दिवस को भी हमने इंग्लिश के सम्मान में हिंदी डे कर दिया है। क्या यही सच्ची हिंदी भक्ति है? क्या सही में हिंदी का हिंदी को सही सम्म

हम भारत हैं

भारत के भीतर बैठे लालची नेता, अफसर, और जो भी लोग है उनके, और भारत के किसी भी हिस्से पर आंख लगाए विदेशी ताकतों के लिए ..... एक एक भारतवासी की चेतावनी... स्वर्ग विदित तुमको भी हो, हम देव भूमि, हम भारत है। मृत्यु से भी न घबराते, हम कर्म पुजारी भारत हैं। कोई भी विपदा आ जाये, हमने रुकना न सीखा, शिखरों को सब रौंद चुके, गीता अनुपालक भारत हैं। जब चाहेंगे आना होगा, धरती पर विधाता को, हम प्रह्लाद की भक्ति का अंश, प्रेम हैं हम ही भारत हैं। भूल न जाना स्वर्ग वासिनी, हम गंगा भूमि पर लाये, भगीरथ के हम ही वंशज, हम जिद्दी हम भारत हैं। अगर ठान लें, नचिकेता बन, यम के द्वार पर जा बैठेंगे, शेरों के दांतो को गिनते,  हम भरत के वंशज भारत हैं। कोई शत्रु नही है सीखा, हमने पाठ कुटुंकम का, कोई हमको न आंख दिखाए, हम वीर शिवा के भारत हैं। सब धर्मों के फूल लगे तो, स्वर्ग से भी सुंदर बनता, बस रक्षक इस उपवन के हम, देव पुत्र हम भारत हैं। मार्ग अगर आ रोक ले सिंधु, या खुद अटल हिमालय भी, बांध दें सेतु, काट दें पर्वत, हम दशरथ मांझी भारत हैं। एक बार तो सोच ले कोई, हमसे टकराने से पहले, ब्रह्म

प्रेम

कदम ये थम के उठ रहे थे, दूर जाने को प्रिये  तुम्हारे दर को छोड़कर, अगर जिए तो क्या जिए। ना भूली रात चांदनी, तू छत पर आई थी कभी, मैं कैसे उनको छोड़ दूं, जो लम्हे प्यार में जिए। भूमि थी मरुस्थली, और मन पर तुम थे छा गए, बाढ़ थी बस प्रेम की, बसे तुम सांस में प्रिये। बड़ी सुहानी रात थी, वो रात थी कि बात थी, बहुत ही दूर तक गए, हाथ हाथों में लिए। प्रेम का अथाह सिंधु, मैं कभी का पा चुका, तुम्हारी जुल्फों के तले, जो खेल प्रेम के किये। नवप्रेम की तरुनता, अब हो गई कठोरतम, तुमने जब से मंजिले, और रास्ते बदल लिए। कोई नया जो गीत था, विरह ही था वो प्रीत का, शब्दो मे हंसी लिखी, थे नीर नयनो में लिए। नव सृजन की कल्पना, में थे रचे महल कई, जो धूल पल में हो गए, वार तुमने यूं किये।

समर्पण

"मैं" उसी दिन मिट गया ये, प्रेम जब तुमसे हुआ था। आज तो बस तुम ही तुम हो, तन ये, तेरा ही प्रतिबिम्ब हो। तेरी आहें, तेरी सांसें, तेरे सपने तेरे अपने, अब तो कोई तन मिटा दे, तन ही क्या ये मन मिटा दे, तुझसे एकाकार हो बस, तू ही जीवन सार हो बस, है सलोने कान्हा मुझपर, तेरा एकाधिकार हो बस, बस रहे ये प्रेम निर्मल, बस रहे ये प्रेम हर पल, चाहे सृष्टि मिट के जाए, चाहे कोई रूठ जाए, बस मेरा प्रेम ये तुझसे, काल से भी मिट न पाए।