प्रेम
कदम ये थम के उठ रहे थे,
दूर जाने को प्रिये
तुम्हारे दर को छोड़कर,
अगर जिए तो क्या जिए।
ना भूली रात चांदनी,
तू छत पर आई थी कभी,
मैं कैसे उनको छोड़ दूं,
जो लम्हे प्यार में जिए।
भूमि थी मरुस्थली, और
मन पर तुम थे छा गए,
बाढ़ थी बस प्रेम की,
बसे तुम सांस में प्रिये।
बड़ी सुहानी रात थी,
वो रात थी कि बात थी,
बहुत ही दूर तक गए,
हाथ हाथों में लिए।
प्रेम का अथाह सिंधु,
मैं कभी का पा चुका,
तुम्हारी जुल्फों के तले,
जो खेल प्रेम के किये।
नवप्रेम की तरुनता,
अब हो गई कठोरतम,
तुमने जब से मंजिले,
और रास्ते बदल लिए।
कोई नया जो गीत था,
विरह ही था वो प्रीत का,
शब्दो मे हंसी लिखी,
थे नीर नयनो में लिए।
नव सृजन की कल्पना,
में थे रचे महल कई,
जो धूल पल में हो गए,
वार तुमने यूं किये।
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