कल्पवृक्ष

कलयुग में एक बार नारद जी घूमते घूमते हिमालय के एक पर्वत पर ये सोच कर रुक गए कि यहां शांति से कुछ समय ध्यान कर लेता हूँ कि तभी वहां एक बुजुर्ग मानव शिखर के नीचे गहरी खाई में झांकता हुआ दिखा। उनको देखते ही उसकी मनोदशा का ज्ञान हो गया।

रुको! हे मानव! नारद जी ने आवाज लगाई।

बुजुर्ग ने चौंक कर पीछे देखा। शायद उसे उस समय यहां किसी के होने का अंदेशा नहीं था।

साधु महाराज आप यहां। बुजुर्ग हड़बड़ाते हुए बोला।

हम तो कभी भी और कहीं भी आ जा सकते हैं, साधु होते ही विचरण के लिए हैं। वहां गहरी खाई में क्या ढूंढ रहे थे। मृत्यु ऐसे यहां नहीं मिलती। नारद जी ने कहा।

वो बुजुर्ग ये बात सुनकर विस्मय सहित शर्मिंदा होते हुए बोले- नहीं साधु महाराज ऐसा कुछ नहीं है।

तो फिर कैसा है? बताओ क्या पता तुम्हारी समस्या का कोई निदान मेरे पास हो। नारद जी ने अपनी पहचान बिना बताए बोला।

बुजुर्ग ने नारद जी से कहा- जीवन में सब देखा। लेकिन अब जिस पत्नी, पुत्र के लिए सब किया वो...... कहते कहते वो बुजुर्ग चुप हो गया।

नारद जी ने कहा चलो में तुमको एक कथा सुनाता हूँ, सुनोगे? और तुम जो कुछ भी खोज रहे थे वो कथा के बाद भी खोज सकते हो, खोज लेना।

उस बुजुर्ग ने मौन स्वीकृति में सर हिला दिया।

नारद जी ने अपनी बात कहनी शुरू की।

सुनो। जब भगवान ने सृष्टि बनाई तो उसने जीवन छोटे जीव से शुरू किया। तुम चाहो तो भगवान विष्णु के अवतार देखो। मत्स्य अवतार फिर कच्छप अवतार..... ऐसे अंतिम ज्ञात अवतार कृष्ण अवतार था। ये ही वो अवतार था जिसमे प्रेम का वो उच्चतर शिखर दिखाई दिया जो कभी नहीं था।

तो जब छोटे जीव से जीवन उत्पन हुआ तो जीव में वो भावनाएं उत्पन्न नहीं हो रही थी जो विधाता ने सोचा था। उसने मातृत्व हर जीव में दिया लेकिन एक सीमा के बाद वो सफल नही हो रहा था।

उसने अपने सबसे अद्भुत रचना मानव को भी बना लिया था। उससे संतुष्ट न हुआ तो देवता भी बना लिए। लेकिन वो अभी भी उस संतुष्टि का अनुभव नहीं कर पा रहे थे जो उनको चाहिए थी। फिर ब्रह्मा जी ने विष्णु जी का सहयोग मांगा। विष्णु जी हंसे और कहा कि अपने देवताओं को कामधेनु, और कल्पवृक्ष दिया। मानव जो आपकी सर्वोत्तम कृति है उसको भी कुछ ऐसा दीजिये जो कल्पवृक्ष के बराबर ही हो।

ब्रम्हा जी सोच में पड़ गए। मानव बनाने के बाद वो निरंतर पशु के श्रेणी की और गिर रहा था। लेकिन कल्पवृक्ष के बराबर क्या है जो मानव को दिया जाए? कल्पवृक्ष दे दिया तो मानव परमात्मा को ही समाप्त करके खुद को परमात्मा घोषित करने का वरदान माँग लेगा, तो कैसे? कल्पवृक्ष जैसा क्या है जो मानव को दिया जाए? इसी सोच में समय गुजर रहा था।

अचानक एक दिन महादेवी सरस्वती की वीना में डूबे हुए ब्रम्हा जी को विचार आया, प्रेम! कल्पवृक्ष जैसा बस प्रेम ही है जो मानव को दे सकते है। प्रेम जिससे मानव चाहे तो स्वयं विधाता को जीत लेगा लेकिन कभी विधाता नहीं होना चाहेगा। प्रेम जिसमे मानव स्वयं को भूल जाएगा, सब हार जाएगा लेकिन कभी जीतना नहीं चाहेगा। 

विधाता ने कल्पवृक्ष को प्रेम रूप में धरती पर अवतरित कर दिया। ये सब जीवो में व्याप्त हुआ। प्रेम को किसी भी रूप में देखें वो अपने आप मे विधाता का रूप हैं। प्रेम ही सर्वथा कल्पवृक्ष है। वो ही कभी त्रिलोक के स्वामी को एक सुदामा के लिए नंगे पांव दौर लगवा देता है। वो ही थोड़े से माखन के लिए भगवान को नाच नचवा देता है। वो प्रेम ही है जो स्वयं विधाता को चोर कहने का अधिकार दे देता है। वो प्रेम ही जो भरत को राज्य मिलने पर भी सिर्फ खड़ाऊं रख कर राज्य करने की सीख देता है। वो प्रेम ही है जो पालनकर्ता विष्णु को अपनी रक्षा के लिए नरसिम्हा अवतार लेने को मजबूर कर देता है। स्वयं भगवान भी इस प्रेम के वशीभूत होकर मैं नहीं माटी खायो गाते है। दूध ने जहर देने वाली पूतना को भी माता का दर्जा दे देते हैं। ये प्रेम पाते ही मानव देवता तुल्य हो गया। वो अब चाहे तो सब जीत सकता था।

सृष्टि में जो भी दृश्य है या अदृश्य है वो प्रेम का ही रूप है। वैसे तो जीवन उत्पन्न करने के लिए, जरूरी नही प्रेम हो वो बिना प्रेम के भी हो सकता है। जैसे सभी जीवों में होता ही है। लेकिन मानव के लिए जो कल्पवृक्ष प्रेम रूप में आया वो विशेष रूप से युगल रूप में था। यानी सिर्फ स्त्री और पुरुष के लिए। फिर भी उस कल्पवृक्ष के अवतरित होने से सभी जीव में कुछ मात्रा में उसका उदय तो हुआ ही। वैसे भी अगर परमात्मा कुछ उत्पन्न करेगा तो सृष्टि उसके प्रभाव में आये बिना नहीं रह सकती।

तो प्रेम एक छोटे से पौधे के रूप में जीवन मे अवतरित होता है। और धीरे धीरे बढ़ता है। वो स्वयं कल्पवृक्ष है तो कभी समाप्त नहीं होता बूढ़ा नही होता, हमेशा विशाल से विशालतम होता जाता है।

उम्र का बढ़ना प्रेम का कम होना कदापि नहीं बल्कि उसमे नए आयाम आते है, परिवार, बच्चे, समाज, बच्चो के बच्चे, ईश्वर, सब समाहित होते जाते है। तो एक समय जो प्रेम का पौधा 2 लोग लगाते है वो नित दिन विशाल से विशालतम होता रहता है और फिर उन्ही के बीज नया पेड़ लगते है। उम्र के साथ उस प्रेम में ठहराव आता है। सागर किनारे पर जितनी भी लहर बना ले लेकिन गहराई में जाते जाते वो नितांत शांत होता है यही गहराई को प्राप्त होता हुआ प्रेम है जो जीवन के अंतिम समय तक निरंतर गहरा और गहरा होता रहता है। यही वो प्रेम है जो आत्माओं को बांध देता है। यही वो प्रेम है जो परमात्मा को भी बांध लेता है। 

अब बताओ तुम्हारा प्रेम कम कैसे हो गया। वो प्रेम था या सिर्फ ऊपरी आकर्षण या दिखावा था? नारद जी ने कथा समाप्त करते हुए पूछा।

उस बुजुर्ग के चेहरे पर खुशी की मुस्कुराहट थी। उसने क्षमा याचना करते हुए वापस जाने की आज्ञा मांगी और घर की ओर चल दिया। उसके कदमो में आज वही जवानी वाली स्फूर्ति थी जो हमेशा पहला प्यार को महसूस करके होती है।


प्रतिध्वनि पत्रिका में प्रकाशित सितंबर 2020

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