तन सीमित मन असीमित
बस रूप रंग का कायल था
पहले नैनो से घायल था।
गोरे मुखडो का चातक था,
वो समय बड़ा ही घातक था।
हिलती कमरो मे डोल गया,
भावों का रेला रोल गया।
तन ही तन की थी चाह करी,
बस रूप देख कर आह भरी।
कितना सीमित, वो प्रथम मिलन,
काम जनित, तन-तन का मिलन।
तन बस दो दिन की माया है,
वो प्रीत नही बस साया है
नित घटती चंचल काया है
थोड़ा तू मन मे समाया है।
जिस दिन मन को अह्सास हुआ,
तू दूर भी था तो पास हुआ।
ना नैनो को तेरे रूप की चाह,
ना हाथों को तेरी तन की थाह।
बस मन पर तेरा अधिकार प्रिये,
तुझसे पराजय स्वीकार प्रिये,
सांसों मे आते जाते तुम,
मेरे स्वप्नो मे समाते तुम,
मन के मंदिर मे मूरत एक,
अब आन बसी वो सुरत एक,
तेरे तन की अभिलाष नही,
मन को तेरे मन की प्यास नई,
सांसों संग तुम आते जाते,
संगीत नया हर पल गाते।
आज मिली मुझको सुमती
तन सीमित, मन असिमित।
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