दर्पन कितने तोड़ गई मैं

पिया मिलन की बेताबी मे,
लोक लाज कर गोल गई मैं,
वो आयें ये सुनकर पगली,
घूंघट के पट खोल गई मैं।

कब से आस लगाये बैठी,
अब आओगे, कब आओगे,
शुष्क मरुभूमि जीवन पर,
बादल बनकर तुम छाओगे,
पिया मिलान की बस आहट पर,
सपनो में रंग घोल गई मैं।
वो आयें ये सुनकर पगली,
घूंघट के पट खोल गई मैं।

फल्गुल की मनभवान रातें,
दीप जले ज्यो तन जलता था,
कब से दूर गये साजन तुम,
आन मिलो ये मन कहता था,
खेलो मुझसे जीभर कर रंग,
हाय  ये क्या, बोल गई मैं।
वो आयें ये सुनकर पगली,
घूंघट के पट खोल गई मैं।

काजल बिन्दीया, लाली, खुशबू,
तन को मन को, खूब सजाये,
बाट जोहती कब से बैठी,
मै राहों पर नैन लगाये,
तेरे सिवा कोई देख ना ले बस,
दर्पन कितने तोड़ गई मैं।
वो आयें ये सुनकर पगली,
घूंघट के पट खोल गई मैं।

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