शब्दों के सृजक

हे! नव उपमान, नए रूपक, 

नव शब्दों के सृजक बोलो,

काम देव के बाणों से भी, 

कामुक शब्दों को खोलो।


जो उपमान नहीं दोगे प्रीतम की,

कैसे सुंदरता भायेगी,

नित क्षीण होती ये सृष्टि, 

कैसे सुंदर कहलाएगी।


चाँद सितारों का फिर बोलो, 

कौन अभिमान मिटाएगा,

कौन प्रिया के मुख मंडल पर, 

सौ-सौ चाँद लुटायेगा।


कैसे सुबह की वो लाली, 

होठों को दमकायेगी,

कैसे कानो की वो बाली, 

बिजली को धमकायेगी।


कैसे सारी दीप्ति भुवन की, 

उन नयनो से कम होंगी,

कैसे इन मेघों की शक्ति, 

उड़ती जुल्फों के दम होंगी।


कैसे गीत सुनेगा कोई, 

कोयल में, और निर्झर में, 

कैसे संगीत सुनेगा कोई, 

मेघों के क्रुद्ध गर्जन में।


सारी मधुशालाओ के मधु से, 

मन की प्यास न बुझ पाएगी,

कैसे उन होठों को छूने से, 

सारी तृष्णा मिट जाएंगी।


कौन भला जो पीर का पर्वत, 

पिघला कर गंगा कर देगा,

कौन भला जो नयन नीर से, 

सृष्टि में सागर भर देगा।


कैसे कहो तो वनवासी एक, 

मर्यादा पुरुषोत्तम होगा,

कैसे कहो तो ज्ञान जो नीरस, 

गीता सा उत्तम होगा।


हो ब्रम्हा के मानस पुत्र तुम, 

सृजन के तुम प्रणेता हो,

अमर प्रेम के साधक तुम हो, 

गीतों के रचियता हो।


वाल्मीकि, तुलसी, काली, 

तुम ही मीरा के वंशज हो,

हो कबीर की सत्य जो वाणी, 

तुम ही उसके एक रक्षक हो।


सूर्य जहां पहुंचा नहीं,

वहां एक तुम जा सकते,

मृत्यु को बाहों में लेकर,

गीत तुम्हीं बस गा सकते।


सोच लो तुमको सत्य ही कहकर, 

दुनिया को सत्य दिखाना है

या तुमको हो भांड सभा का, 

सत्ता के गुण ही गाना है।


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