तुम पारस मैं पाथर (e)

तुम पारस मैं पाथर कान्हा,
तुम अमृत मैं विष हूँ घाना,
ज्योति पुंज तुम, तम मैं पापी,
दया का तेरे हूँ अभिलाषी।


अधर्म धर्म मैं कुछ न जानूं,
तुझको बस एक अपना मानूं,
क्षमामूर्ति तुम, मैं अपराधी,
दया का तेरे हूँ अधिकारी


सहस्त्र नाम धारी तुम पालक,
तुच्छ अहंकारी मैं बालक।
हे! देवों के देव विधाता,
मैं पतित, कुछ ज्ञान दो दाता।


न गीता में तुम हो कान्हा,
न वेदों में तुमको पाना।
बंसी बजाते मुरली धर को,
पा लूँ बस भोले गिरिधर को।


तुम तो हो बस दया के सागर,
प्रेम से भर देते हो गागर।
मन ये शरण तुम्हारी चाहे,
बनना प्रेम पुजारी चाहे।


जन्म मरण से मुक्ति क्योंकर,
मुझसे कहो मैं कान्हा चाहूं,
बार बार तुमसे मिलने की,
आस लिए घरती पर आऊं।


न तप और न पूज्य विधाएं,
कहता जग तुझको यूं पाएँ,
मैं तो बस एक प्रेम ही जानू,
चाहे तू आये न आये।


शब्द कोई भी, गीत तुम्हीं हो,
राग हो कुछ, संगीत तुम्ही हो,
तुम हो प्रेम तुम्हीं अविनाशी,
तुम्हीं सुदमाओ के साथी।


अब तक जीवन व्यर्थ गवांया,
माया को ईश्वर सा पाया।
अब तो दया की आस जगी है,
श्याम तुम्हारी प्यास जगी है।


यमुना के मनोहारी तट को,
कैसे भूलूँ बंसी और नट को।
हे! राधा के श्याम सलोने,
भक्ति दो मीरा दो होने,
भक्ति दो मीरा दो होने।


प्रतिध्वनि पत्रिका मई

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