कौन तुम?
महादेवी वर्मा जी की कविता "कौन तुम मेरे हृदय में " पढ़ने के बाद अचानक ये लाइनें लिख दी। फिर हफ़्तों तक रचना अपने पास रखी कि कहीं ये कॉपी तो नहीं हो गई। फिर ये सोच कर पोस्ट की कि उनकी कॉपी करना मेरे जैसे के लिए संभव ही नहीं। महादेवी जी को शत शत नमन।
कौन, तुम जो, मन में मेरे,
बन घटाएं, छा रहे हो।
कौन तुम जो मुझको मेरी,
राह से भटका रहे हो।
ऐसा लगता है मुझे फिर,
छोड़ तुम दोगे कहीं पर।
इन अदाओं से मुझे क्यों,
ऐसे तुम भरमा रहे हो।
कौन तुम जो मन में मेरे,
प्रेम का रस घोलते हो।
कोयल कूँके बागों में ज्यों,
ऐसे ही तुम डोलते हो।
क्षण-भंगुर इस जहान को,
स्वप्न सा महका रहे हो।
प्रेम अमर, संगीत अमर है,
गीत अमर ये गा रहे हो।
कौन तुम जो मुझको मेरी,
राह से भटका रहे हो......।
पल-प्रतिपल, क्षण-प्रतिक्षण,
दिल से बस ये आह निकले।
साथ तेरा हो जो साथी,
जिंदगी की राह निकले।
तुम ही जाने दिल को मेरे,
कैसे क्या समझ रहे हो।
दिल में गहरे तीर से तुम,
बस उतरते जा रहे हो।
कौन तुम जो मुझको मेरी,
राह से भटका रहे हो......।
याद मुझको है अभी तक,
तेरा मेरा लघु मिलन वो।
प्यासे दिल की शुष्क धरा पर,
सावन की बस बूँद हो ज्यों।
मुझसे मिलते भी नहीं हो,
प्यास भी भड़का रहे हो।
मुझको अपनी चाह में यूँ,
क्यों डुबोते जा रहे हो।
कौन तुम जो मुझको मेरी,
राह से भटका रहे हो......।
द्वेष का अनुराग का,
क्या अजब सा खेल है ये,
दूर वो मिलकर रहा है,
क्या अजब सा मेल है ये,
क्या हुआ कैसे मुझी में
बस तुम आते जा रहे हो,
गीत में संगीत जैसे,
तुम समाते जा रहे हो।
कौन तुम जो मुझको मेरी,
राह से भटका रहे हो......।
nice
ReplyDeleteThanks
ReplyDeleteBahut khub!!!
ReplyDeleteThanks Vimlalesh ji
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