खो गई मानवता

जो कभी था बुद्ध की धरती,
वहां ये क्या हुआ है,
आज मानव अस्मिता पर,
क्यों लगा धब्बा यहां है।

डोल गया सिद्धार्थ का मन,
एक बुढापा देख कर के,
दिखता नही क्यों रे जीवन,
मार्ग में सकुचा पड़ा है।

आज मानव बंट गया है,
धर्म, जाति, और देश मे,
वसुधैव कुटुम्बकम् का,
सनातन अमर घोष कहा है

आज तक पूजा था जिसको,
वो परी, अबोध कन्या,
नोच डाला भेड़ियों सा,
मानवता का बोध कहाँ है।

था खड़ा होकर तू बोला,
बीच रणभूमि में कान्हा,
तू चराचर में अगर क्यों,
ऊंच नीच का भेद यहां है।

आज तो रूठे सभी वो,
सुसमय जो मीत थे,
टूटते गिरते को थामे,
ऐसी थी वो प्रीत कहाँ है।

खड़ाऊं रखकर पूजता था,
राज्य मिला, न प्रेम त्यागा,
आज भाई भाई दुश्मन,
खो गया क्यों भरत यहां है।

दैनिक वर्तमान अंकुर में प्रकाशित होने को 31 अगस्त भेजा गया

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