अन्याय

भाग 1

हे राम! तू मर्यादा का,
उत्कृष्ठ शिखर है ये माना,
पर सीता पर अन्याय के,
दोष का भागी तू भी है।

चंद लोगो के कहने से, क्या
असत्य, सत्य हो जाएगा,
कलयुग में झूठे न्यायाधीश,
इसका सहभागी तू भी है।

झूठी बात कहै कोई,
उस पर ही न्याय विधान बना,
कैसे न हो, रोती सीता के,
आंसू का अपराधी तू भी है।

लोकापवाद से बस बचने को,
त्याग सत्य को कैसे दिया,
अब तक जो जारी नारी पर,
अन्याय, सहभागी तू भी है

माना कि एक अवतार सही,
तुझको पूजे संसार सही,
नारी किस्मत में दर्द लिखा,
इसका लेखाधिकारी तू भी है।

गर आज कोई इस कलयुग में,
नारी को कोई अधिकार न दे,
कुछ किया नही लेकिन थोड़ा,
इसका तो भागी तू भी है।

जब चौदह वर्ष की बात हुई,
सब त्याग सिया भी साथ हुई,
पर अब भी नारी अविश्वासी है,
है पुरुष अपराधी, कुछ तू भी है।

भाग 2
जब अन्याय लिखा तो मन मे एक विचार था कि राम भी दुखी थे बिना सीता के, तभी सोचा कि उसपर भी कुछ लिखने का तुच्छ प्रयास करूंगा, लेकिन जब लिखने लगा तो राम के दुखी होने का कोई कारण ही नज़र नही आया, दुख कैसा दुख और क्यों दुख? जब सच सामने था तो किन्ही लोगो की बातों में आकर झूठा न्याय करना तो दुख क्यों? राजधर्म का मतलब ये तो नही की आरोप लगाने वाले की बात इसलिए सही की वो प्रजा है, और राजा को राजधर्म निभाना है तो वो सही है। ये तो वही बात है, नेता को वोट लेना है तो उसकी हर मांग मान लो, तो कैसा सत्यव्रत होना, कैसा दुख, क्योंकि निर्दोष पत्नी को सजा देकर तो वो महान राजा होने के परम शिखर पर थे, पुरुष से मर्यादापुरुषोत्तम हो गए, तो कैसा दुख? मेरा राम के अवतार होने पर संदेह नही, वो भगवान है लेकिन अगर भगवान होकर वो स्त्री से ऐसा करें तो क्यों नही उनकी प्रजा वैसा करे, स्त्री को जला दे, घर से निकाल दे तो गलत कैसे? यथा राजा तथा प्रजा भी तो सही ही है न।

वो कन्या जो महलों में बस,
नाज़ुक फूलों में पलती थी।

जो तज कर सारे आराम चली,
बन कर छाया श्री राम चली।

वो चाहती तो वन न जाती,
और न रावण से ही हरि जाती।

न धोबी से आरोपित हो,
पति के द्वारा ही तजि जाती।

ये माना राम भी दुख में थे,
पर जो भी था, महलों में थे।

था राज परिवार साथ मगर
जीना तो सिया का था दूभर।

वन में एक आश्रम उसमे रहती
दो नन्हे बच्चो संग दुख भी सहती।

एक पिया जो प्राण से प्यारा था,
जिसपर सब जीवन वारा था।

जिसके दो नन्हे नव-अंकुर,
थे पुत्र जो उनका सहारा था।

क्या वक़्त कभी वो आएगा,
उनको समाज अपनाएगा?

दे अग्नि परीक्षा आई थी,
तब भी जग में रुसवाई थी।

कैसे कैसे दुख सहती वो,
वन में कांटो में रहती वो,

माना राम ने त्यागा सब,
सीता को भी त्याग दिया।

और सीता ने राम सुतो पर,
अपना ये जीवन त्याग दिया।

हां राम दुखी थे तो जाते,
सब त्याग सिया के संग जाते।

सीता अर्धांगनी राम की थी,
राम भी उनके हो जाते।

क्या मोह राज का प्यारा था,
क्या राज सिया से न्यारा था?

वो प्रजा कि जिसने सीता पर,
कलंक धरा वो प्यारा था?

सीता पति की छाया बन,
चौदह वर्ष वन में भटकी।

क्यों राम नही सन्यासी बन,
सीता संग भटके वन वन?

क्या राम नही ये संभव था,
क्या मर्यादा में असंभव था?

क्या अग्नि परीक्षा जरूरी थी?
तुमने भी सही वो दूरी थी?

तो तुम भी एक बार समा जाते,
तुम अशुद्ध नही ये दिखलाते?

परीक्षा में ऐसा भेद था क्यों,
स्त्री से ये मतभेद था क्यों?

क्या सत्य का कोई मोल न था,
क्या मर्यादा का ये ढोंग न था?

थे हरिःचन्द के वंशज तुम,
क्यों राजधर्म बस प्यारा था?

हे राम, तुम्हारे पूर्वज ने,
एक सत्य पर सब कुछ हारा था।

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