घाट यमुना के फिर आओ

न जुदाई का ही शिकवा, न तो कोई चाह मितवा,
बस यही एक आरजू है, घाट यमुना के फिर आओ।
मन की सारी आह विस्मृत, तुझमे सारी चाह विस्मृत,
है विरह की आग व्यापक, घाट यमुना के फिर आओ।


दीप कितने जल उठे हैं, नयनों में भर जल उठें हैं,
श्याम जब से तुम गए, मिलन के पल खल उठें हैं,
कोरी आशा ये नही है, हाँ निराशा भी नही है,
देव तुम, प्रबरह्म तुमसा, कोई दाता भी नहीं है।
तान दो फिर प्रीत की तुम, श्याम बंसी फिर बजाओ,
है विरह की आग व्यापक, घाट यमुना के फिर आओ।


कृष्ण बने हो श्याम बनो फिर, ओ कान्हा घनश्याम बनो फिर,
हो कर्मो के न्यायधीश पर, महारास का धाम बनो फिर,
प्रेम बिना आधार नहीं कुछ, राधिका बिन श्याम नहीं कुछ,
मुरलीधर घनश्याम न होगे, प्रेम बिना तो ज्ञान नहीं कुछ,
अहम कुचलने ज्ञान का फिर, श्याम गोवर्धन उठाओ,
है विरह की आग व्यापक, घाट यमुना के फिर आओ।


विरह की इस वेदना पर, मुझको कोई शोक नहीं है,
आत्मा में तूं बसा एक, तन की कोई रोक नहीं है,
पर है मन का वेग चंचल, तुझको अपने पास चाहे,
काश फिर तू कान्हा आये, माखन मिश्री फिर चुराये,
हाथ लेकर हाथ अपने, नंदनवन में फिर घुमाओ,
है विरह की आग व्यापक, घाट यमुना के फिर आओ।

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