ईश्वर पर सवाल


हम लोग मिथ्या आशावाद के शिकार हैं। देवियां आएंगी बचाने या भगवान आएगा। कोई नही आता किसी को बचाने, ये सब इस हाथ ले उस हाथ दे वाले नियम से चलता है। ये दुनिया ही स्वर्ग या नरक है। जब हम खुद इसको नर्क बनाते हैं तो किस हक से उम्मीद रखते कि स्वर्ग के सुख मिलें। ये आशा ही मिथ्या आशावाद है। जब किसी के साथ कुछ गलत हो रहा होता हम सोचते कि हमारा क्या, लेकिन अपने समय शिकायत करते कोई आया ही नहीं बचाने। जब हम सरकार चुन रहे होते तो जाति, धर्म, पड़ोसी देख कर राजा को चुनते, पैसे लेकर चुनते, दारू की बोतल लेकर चुनते, भले वो बलात्कारी हो या हत्यारा हम उसको वोट देते और उम्मीद करते कोई हत्या नहीं होगी बलात्कार नहीं होंगे, देवियां आएंगी बचाने, क्यों आएगा कोई? जब बेटियां होती तो हम दुखी होते, उनको मार भी डालते, उसको दबा कर रखते, हमेशा बोलते की तू दोयम दर्जे की है, वो भी बेटों के ही सामने और उम्मीद करते की वो भविष्य में अच्छा इंसान बनेगा, औरतों को इज्जत देगा, बहन मतलब अपने साथ साथ दूसरो की बहन की रक्षा करेगा। कितना अच्छा विचार है न? आशावादी रहने की कोई परेशानी नही, रहिए। सोचिए देवियां आएंगी या भगवान आयेंगे। लेकिन याद रखने की अंतिम बात ये है कि हमे अपने कर्मों के फल को भुगतने से कोई नहीं बचा सकता।

अब कोई कहेगा छोटी बच्चियों के कौन से कर्म? उनके नही तो उनके मां बाप के हैं। समाज के है जिसका प्रतिदान उनको अपनी इज्जत दे कर करना पड़ रहा है, अपने प्राण देकर करना पड़ रहा है।

हमारे में से कितने हैं जिन्होंने वोट देते हुए कभी जाति या धर्म नही देखा? या ये जानते हुए की अपने धर्म का व्यक्ति हत्यारा हैं और दूसरे धर्म का अच्छा आदमी तो भी अपने धर्म वाले हत्यारे और बलात्कार के अपराधी को वोट नहीं दिया? या शर्मा, ठाकुर, तोमर, हुसैन, सिंह, यादव देखकर वोट नहीं दिया? पैसे या किसी अन्य लालच में वोट नही दिया? हममें से कितने लोगों ने प्रेगनेट होने पर किसी से ये सलाह नही सुनी कि अल्ट्रासाउंड करवा के पता कर लो क्या है? भगवान से स्वस्थ बच्चे को जगह बेटा नहीं  मांगा? बेटे के लिए क्या आज भी लोग पूजा नही रखते? अगर ये सब किया है तो हर बलात्कार के लिए हम दोषी है इन बलात्कारियों से बड़े दोषी। क्योंकि हमने अपने बच्चों को परोस दिया है इन लोगों के आगे। आओ लूट लो, दहेज के लिए जला दो, मार दो और जब कुछ हो जाए तो मिलकर मोमबत्ती हाथ में लेकर पूछते हैं भगवान कहां है, क्या उसमे शक्ति नहीं, क्या वो बस किताबों में है?

क्यों बचाएं भगवान किसी को, जब हम उन बच्चियों के मां बाप होते हुए, उनको बचाने को इच्छा नहीं रखते तो भगवान ने ठेका लिया है क्या? मतलब हम बबूल बो कर सामने बैठ कर मंत्रोचार करें की आम बन जा आम बन जा अगर वो आम नहीं बना तो भगवान को दोष दें कि शक्ति ही नहीं उनमें। ये खुशफहमी पालने की आदत बहुत भोली है बहुत नाजुक, बिल्कुल गुलाब की पंखुड़ियों की तरह। तो पालिए खुशफहमी, भगवान को कोसिए, लेकिन बबूल बोना बंद मत कीजिए। आस्थाओं पर सवाल कीजिए, लेकिन कर्मों के लिए कोई जवाब ना दीजिए। मिथ्या आशावादी रहिए, नर्क बनाते रहिए, बलात्कारियों को राजा भी बनाते रहिए और हां मोमबत्ती लेकर बाहर निकलना ना भूलिएगा किसी की हत्या होने पर, किसी का बलात्कार होने पर। इसके लिए अपनी तख्तियां परमानेंट पेंट करवा लीजिए, बस नाम की जगह छोड़ दीजिएगा, नाम बदलते रहेंगे खर्चा भी बचेगा, हर बार सिर्फ नाम बदलना है बदल लेंगे। और हां ईश्वर को दोष देना सबसे जरूरी है।

ये बातें किसी एक के लिए नही हम सबके लिए हैं। हम सब दोषी हैं।


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