ये जीवन है (भाग 16-18)

अब तक के भाग में अपने पढ़ा। आशा की वो परछाई अपनी कहानी सुनाती है। उसने सोनम पर हुए अत्याचार और नेहा, अजय, मोहन के बारे में भी बताया कि उनके साथ हुई घटनाओं में उनका कोई हाथ था ही नहीं, वो सब पूर्वनिर्धारित था। अब आगे....


सालों तक हम यही मिट्टी में दबे रहे लेकिन, कुछ दिनों पहले  पता नहीं कैसे वो गुड़िया बाहर आ गई और नेहा ने उस गुड़िया को ले लिया। वो बहुत प्यारी बच्ची थी। उसको पता नहीं क्यों ये गुड़िया बहुत पसंद थी। वो दोस्तों से भी दूर होने लगी। मुझे उसमे सोनल का अक्स दिखाई देने लगा था। यहां के सारे बच्चे मुझे बहुत पसंद आने लगे थे। मैं उनको खेलते देखती थी लेकिन नेहा पता नहीं क्यों अब अपने दोस्तों को छोड़ इसी गुड़िया में लगी रहती थी। लेकिन एक दिन मुझे आभास हुआ की उसका एक्सीडेंट होने वाला है, इसी लिए हमने उस दिन राहुल को वो सब दिखाया जिससे अगर हो सके तो नेहा को बचाया जा सके। लेकिन वो नहीं हो पाया। हमने राहुल को अजय और मोहन के बारे में भी दिखा दिया था। लेकिन अजय को भी नहीं बचाया जा सका। अब जब सबको ये पता है तो शायद मोहन को आप लोग बचा लोगे। लेकिन इन सबमें हमने कुछ किया ही नहीं। मैंने तो बस इन बच्चों को बचाने का प्रयास भर किया था। हम तो सिर्फ अपनी मुक्ति के लिए भटक रहे हैं। शायद हमें मुक्ति मिलनी ही नहीं है।


आशा की कहानी सुनकर सब चौंक गए थे। मोहन के घरवाले तो बहुत ज्यादा डर गए। बाबा ने सबको ढांढस बंधाया। फिर बाबा बोले की हमे आशा और उसकी मां की मुक्ति के लिए पूजा करनी होगी। उनका तर्पण करना होगा। ताकि वो इस गुड़िया से अपना नाता तोड सकें और उनको मुक्ति मिले जो उनके अंतिम संस्कार ना होने और सोनल के प्रति उनके प्रेम के कारण भटक रही हैं। क्योंकि किसी को मुक्ति में सहयोग देने से अच्छा काम और क्या हो सकता है। और उनकी मुक्ति की पूजा मोहन और राहुल से ही करवाई जाएगी तो भगवान की कृपा से और इन आत्माओं के आशीर्वाद से सब ठीक हो जाएगा। फिर बाद में मोहन और राहुल के लिए कुछ और उपाय भी करने का आश्वासन बाबा ने दिया।


बाबा ने उन आत्माओं को मुक्ति के लिए पूजा का आयोजन किया और मोहन और राहुल ने हो उनकी सारी पूजा को संपन्न किया। बड़ी अजीब बात थी कि राहुल बिल्कुल ठीक  तरह से जैसा बताया जा रहा था कर रहा था। ये देख कर हमारी उसको ठीक होने की चाह को बहुत संबल मिला था। बाद में इन दोनो के लिए भी महामृत्युंजय पाठ का आयोजन किया गया। सबको उम्मीद होने लगी कि दोनो बच्चे ठीक से रहेंगे। बाबा ने हमें ये भी बताया की राहुल की तबियत खराब होने में किसी ऊपरी शक्ति का कोई हाथ नहीं। उसके मन पर बार बार लगी चोट के कारण ही ये सब हो रहा है। इसको अब डाक्टर के इलाज की जरूरत है। भगवान की कृपा से जल्दी ही राहुल ठीक हो जायेगा। जब तक राहुल ठीक न हो उसको इस शहर से दूर कहीं रहने के लिए भेज देने का सुझाव भी उन्होंने दिया। हम लोगों ने डाक्टर से सलाह ली और उन्होंने भी यही सुझाव दिया। इसी वजह से गांव आ गए और राहुल के पापा शहर में ही रह रहे हैं। वो घर भी उन्होंने बेच कर नई जगह घर ले लिया है। राहुल की तबियत में अब बहुत सुधार है। उस दिन बच्चे को देख उसके साथ खेलने की कोशिश कर रहा था। बस लेकिन गांव के लोग इसको पागल समझते हैं। कोई बच्चा इसके साथ खेलता भी नहीं है। 


कविता भी उधर आ गई थी उसको भी ये सब सुन कर बहुत दुख हुआ। इधर मोनू राहुल के घर के बाहर से उसको देख रहा था, दोनो और दोनो बीच बीच में मुस्कुरा रहे थे जैसे दूर से ही एक दूसरे को पहचानने की कोशिश हो रही हो। वैसे भी बच्चे किसी भी बातों जल्दी भूल जाने की शक्ति से परिपूर्ण होते हैं लेकिन जब कोई बात बहुत जोर से लगी हो तो शायद भूल पाना बेहद मुश्किल हो जाता है। शायद मोनू उस दिन की बात भूल गया था। राहुल भी काश सब कुछ भूल जाता रवि मन में राहुल के लिए भगवान से मन ही मन दुआ की। जल्दी ही सब ठीक हो जायेगा कह कर रवि और कविता जाने लगे और इससे ज्यादा कुछ कहने का कोई मतलब था भी नही। समय काफी होने लगा था और चाचाजी के यहां भी उसको पहुंचना था नहीं तो बहुत बातें सुनने को मिलने वाली थीं। 


घर बिल्कुल नजदीक ही था इसलिए जल्दी ही  चाचा जी के यहां पहुंच गए। वहां पूरा उत्सव सा माहौल था महिलाएं आंगन में बैठ कर मंगल गीत गा रहीं थीं। सब लोग किसी न किसी काम में लगे हुए थे। बाहर लोग खाने की तैयारी में लगें हुए थे। जमीन पर ईंटों को लगा कर चूल्हा बना हुआ था जिसपर लकड़ी के सहारे खाना धीरे धीरे तैयार हो रहा था। लकड़ी पर खाने बनाने का एक फायदा यही होता खाना बहुत स्वादिष्ट होता है लेकिन इसमें समय थोड़ा ज्यादा लगता है। आलू, परवल, सीताफल, घीया, गोभी बैगन, गोभी, कटहल, कच्चे केले आदि विभिन्न सब्जियों को मिला कर तरी वाली सब्जी बनाई जा रही थी साथ ही अरहर की दाल, जिमिकंद की चटनी, इत्यादि बनाने की तैयारियां भी चल ही रही थी, उधर बड़े बड़े मिट्टी के घड़ों में दही का तो ज्यादा इंतजाम था दही के बिना यहां कोई शुभ कार्य होता ही नहीं गांव का भोज हो या कोई और दही का होना सबसे जरूरी है और लोग दही खाते भी बहुत ज्यादा हैं शहरों में जितनी दही से हम रायता बनाते हैं उससे ज्यादा दही तो यहां मटकों में लगी रह जाती है।


आंगन में बहुत शोरगुल हो रहा था। सभी महिलाएं गीत गा रहीं थी बुजुर्ग महिलाएं सबको समझा रही थीं कि क्या कैसे करना है। गांव का नाई आया हुआ था और मुंडन में उसकी डिमांड एक फोन की थी। सारे बाल काटने के बाद सामने के थोड़े से बाल बचे हुए थे और उसको वो काटने को तैयार ही नहीं था। बहुत जोर शोर से उसको समझाया जा रहा था अन्य लालच दिए जा रहे थे। लेकिन वो ढीठ, टस से मस होने को तैयार ही नहीं था। बड़ी देर बाद वो किसी तरह माना और बाल कटवाने की रस्म भी पूरी हो गई थी शाम भी होने लगी थी। इसी प्रकार मुंडन का समारोह बहुत भव्य तरीके से संपन्न हुआ। 


शाम को सत्यनारायण भगवान की पूजा भी होनी थी जिसके लिए तैयारियां हो रही थीं। कुछ लोग बांस काटने के लिए बाग जा रहे थे। गांव में बहुत से लोग हनुमान जी की ध्वजा लगाते हैं उसके लिए एक सबसे लंबा सीधा बांस काटा जाता है। पूजा के लिए बांस किसी के यहां से काटने पर वैसे तो किसी को कोई आपत्ति नहीं होती। लेकिन सभी का प्रयास होता की बांस अपना ही लिया जाए। अपने पुण्य के काम में किसी और को क्यों भागीदारी दी जाए। एक हरा सा लंबा बांस जो लगभग पचास साठ फिट का तो होगा, को लाया गया। उसको ध्वजा लगाने के तैयार किया गया। उसको पानी से धोया गया फिर उसपर चावल को भिगो कर पीस कर उससे हाथों के थप्पे लगाए गए। रोली इत्यादि लगा कर इसकी पूजा की गई। जिसका मुंडन था उसने और उसके पूरे परिवार ने पूजा में हिस्सा लिया। इसको रात को तुलसी पेड़ के पास ही करीब चार पांच फीट गहरा गढ्ढा खोद कर उसमे लगाया जाएगा फिर उसको मिट्टी से भी स्थिर कर दिया जाएगा। मोनू अन्य शहरी बच्चों के लिए तो ये बिल्कुल अलग अनुभव था। एक तरफ तो वो इस बच्चे के गंजे होने का मजाक भी उड़ा रहे थे और दूसरे इन अलग अलग कामों को देख भी रहे थे।


क्रमश:


17

उधर कुछ लोग केले के पत्ते काट काट कर ला रहे थे। वैसे तो पत्तो की थालियों का इंतजाम किया गया था लेकिन रात को ब्राह्मण भोज केले के पत्तो पर ही होना था। किसी भी पेड़ से दो से ज्यादा केले के पत्ते नहीं काटे जाते ताकि पेड़ को नुकसान ना हो। फिर इन पत्तो को बीच से दो हिस्सो मे काटा जाता है फिर उसके साइज के हिसाब से लगभग दो फीट के टुकड़े किए गए। फिर उनको पानी से धोया गया। 


शाम को बहुत सारे लोग भोज के लिए आए हुए थे। संदीप भी आ गया था और आज मोनू उसके बच्चो के साथ ही खेलने में व्यस्त था। हर दुपहर को गांव के पीपल के पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर ताश खेलते गांव के लोग। भरी दुपहर में गर्मियों में भी इस पेड़ के नीचे कभी गर्मी नही लगी अभी तो वैसे भी गर्मियां शुरू भी नहीं हुई थी। बिल्कुल सुहाना मौसम और इसी तरह बारह दिन कैसे गुजर गए पता ही नहीं चला। गांव का स्वच्छ वातावरण, साफ हवा, प्राकृतिक सौंदर्य, दूर दूर तक खाली जमीन। वक्त कैसे गुजर जाता पता ही नहीं चलना था और चला भी नहीं। इतने दिनों में गांव मोनू को भाने लगा था, राहुल से भी उसकी दोस्ती हो गई थी। रवि ने उनका नंबर भी ले लिया था ताकि जब राहुल ठीक होगा और वो लोग शहर आयेंगे तो मिलने का मौका ढूंढा जायेगा।


आखिर वो दिन आ ही गया जिस दिन रवि की वापस शहर के लिए निकलना था। आज सुबह से ही जाने की तैयारी चल रही थी। सबका मिलने आना, तरह तरह की हिदायतें। ऐसे जाना ऐसे करना। मोनू पर सब प्यार लुटा रहे थे। राहुल भी आया था। कुछ उदासी भी थी उसके चेहरे पर। फिर जब कविता ने उसको ये बताया कि जब वो शहर आएगा तो हम उससे जरूर मिलेंगे तो उसका चेहरा खिल सा गया। रास्ते के लिए कुछ बनाया था कहीं मोनू को भूख न लग जाए। बच्चों को कब क्या चाहिए हो इसका पता तो कोई लगा ही नहीं सकता लेकिन तैयारियां तो करनी ही पड़ती हैं। शाम की ट्रेन थी तो आज दिन में खाने पीने का इंतजाम चाचा जी के घर पर ही था। आज जल्दी ही दिन बीता जा रहा था। सब अनुमान लगा रहे ट्रेन दिन में कितना लेट आई है और कितने लेट हो सकती है। ऐसा लग रहा था कि रेलवे के सारे फैसले यहीं से होते हैं। सबका अनुमान था ट्रेन चार घंटे लेट आई है तो कम से कम एक घंटा लेट होनी ही है। लेकिन रवि ने कोई खतरा मोल ना लेते हुए 139 पर कॉल की तो पता चला ट्रेन 1:30 मिनट लेट होंने वाली है। चूंकि ट्रेन हमारे गांव के बीच से ही गुजरती थी। ट्रेन की पटरी हमारे घर से यही कोई कोई 300 मीटर दूर ही थी। इसलिए ट्रेन के आने का अंदाजा सबको हो जाता था। लेकिन ट्रेन के आवाज से ये पता लगा लेना कि लोकल है या एक्सप्रेस। साथ ही नाम का भी अंदाजा बहुत सटीकता से लगाने में गांव वाले माहिर थे। उसी से वो ये भी पता लगा लेते के लौटते हुए ट्रेन कितना लेट आएगी क्योंकि हमारे गांव के बाद सिर्फ दो ही स्टेशन थे। ये अंदाजा अक्सर सही ही होता था। वैसे भी जिस लाइन पर ट्रेन कम चलती हों उस लाइन पर ये अंदाजा भारत के हर गांव के लोग लगाना अच्छी तरह जानते हैं। अब पंचबजिया आई, अब सतबजिया आई और इस अनुमान का तोड़ तो आजकल के इंटरनेट युग में गूगल भी बिना इनपुट के ना दे पाए। ट्रेन लेट थी लेकिन तब भी शाम का समय भीड़ भाड़ न हों इसलिए सब चार के कुछ बाद ही निकल गए। सुबह ही गांव के पास वाले गांव के रिक्शे वाले को आने का समय दे दिया गया था। सब समय पर स्टेशन पहुंच गए। चाचा जी संदीप भी साइकिल पर साथ आ गए थे।  


स्टेशन यही कोई तीन किलोमीटर दूर था। स्टेशन की ओर जाने वाली रोड़ पर करीब पांच सात सौ मीटर पहले ही लगने लगा था कि स्टेशन आने वाला है। मार्केट सुबह ही सजने जाती थी बहुत सारे गावों के लोग अपनी जरूरत का समान लेने यहीं आते आते थे और धूप ज्यादा होने से पहले घर भी लौट जाते थे। लेकिन शाम को आठ बजे तक बंद होने लगती थी। वहीं एक दुकान पर समोसे देख कर मोनू का मन किया। चूंकि ट्रेन आने में काफी समय था तो रवि और बाकी सब दुकान पर समोसे खाने को रुक गए। बहुत दिनों बाद कुछ बाहर का खाने का मौका मिलने वाला था वैसे भी गांव के समौसे का टेस्ट लेना तो बनाता ही था। यहां समौसे को तोड़कर उसपर चने की सब्जी, मीठी चटनी प्याज और मिर्च डाल कर मिल रहा था। तो जैसे मिल रहा था वैसे ही खाने का निर्णय लिया गया। मोनू के लिए मीठी चटनी, प्याज डाल कर प्लेट लगवा ली थी। जिसे देख वो बहुत खुश हो गया, वो 15 दिन बाद कुछ ऐसा खा रहा था। सामने ही स्टेशन था। पीले रंग की स्टेशन की दीवार, सामने के अलावा भी स्टेशन में घुसने के काफी रास्ते थे। ट्रेन यहां बस दो ही मिनट रुकती थी, इसलिए पहले से ही स्टेशन मास्टर से अपनी बोगी का पता कर के रवि सबके साथ वहीं खड़ा हो गया था। अब गर्मी बढ़ने लगी थी लेकिन शहरों के मुकाबले कुछ भी नहीं थी। छोटा सा स्टेशन जिसमे मुश्किल से तीस मीटर की शेड लगी हुई थी, एक प्लेटफार्म चालू था बाकी एक बनने की प्रक्रिया को निरंतर चलायमान रखने की प्रक्रिया में कुछ सालों से प्रयासरत था। स्टेशन पर पांच छह पीपल के विशाल पेड़ थे।जिनके नीचे चबूतरे बना दिए गए थे। जिनके नीचे किसी एसी से कम मजा नहीं आता था। ट्रेन यहां से एक स्टेशन पहले से ही शुरू होती थी इसलिए भीड़भाड़ होने का कोई कारण था ही नहीं। दिन भर में 5-6 एक्सप्रेस, कुछ लोकल ट्रेन की अवभगत ही ये स्टेशन कर पाता था।


1st एसी का टिकट था और रवि को केबिन मिल गया था जिसमे सिर्फ दो ही सीटें थी। उनका सफर बिल्कुल आरामदेह होने वाला था लेकिन सफर तो सफर ही होता है। वैसे रवि ने पहली बार फर्स्ट क्लास का टिकट लिया था ऊपर से केबिन का अलॉटमेंट उसको हो गया था। जो किसी काम को पहली बार करते हुए होता है वो उत्साह तो रवि को भी था पहली बार का वो बाल उत्साह लेकर ट्रेन का इंतजार हो रहा था। उधर मोनू टिकने का नाम ही नहीं ले रहा था। ट्रेन बताए गए समय पर ही आई, लेकिन सामने से आती ट्रेन के चक्कर में पंद्रह मिनट से ज्यादा खड़ी रही। सब आराम से ट्रेन में चढ़ गए, पूरा डिब्बा खाली ही था जो आने वाले स्टेशनों पर भर ही जाना था। बड़े दिनों बाद रवि इतने दिनो के लिए शहर से बाहर आया था। वापस जा कर उसको काम पर भी लौटना था। शहर पहुंचने के एक दिन बाद उसको ऑफिस ज्वाइन करना था। 


क्रमश:

18

देश में अभी तक अंग्रेजी राज्य के निशान मौजूद हैं ही, समानता का हक है लेकिन ये सिर्फ पेपर पर ही है। जनरल डिब्बे में ठूंस ठूंस कर भर जाने वाले लोग और उसी ट्रेन में फर्स्ट एसी बोगी के लोगों में राजा और रंक से कम का अंतर नहीं था। चाय, पानी, नाश्ता, खाना, सब समय पर उपलब्ध थे। शौचालय तो इतने क्लीन थे जितने शायद अन्य डिब्बे भी न होते होंगे। वैसे भी राजधानी और शताब्दी गाड़ियों का समय पर चलना और मेल और एक्सप्रेस का घंटों कभी कभी दिनो लेट होना सामान्य है। लेट होने का भी नियम है अगर ट्रेन किसी बड़े शहर जा रही तो शायद वो लेट कम हो और किसी दूर दराज पिछड़े इलाके में जा रही है तो किसको फिकर होगी जाए या ना जाए। भले पैसे सभी से लिए जाते हो लेकिन जनता से ऐसा असमानता का व्यवहार अगर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में सरकारी शह पर होता हो तो किसी अन्य देश या पिछड़े देशों का हाल समझना शायद मुश्किल ना हो। 


ट्रेन रुकते चलते अपनी मंजिल की ओर जा रही थी। कहीं कहीं स्टेशन ना होने पर भी, ट्रेन के सिग्नल से पहले आधा घंटे तक ट्रेन बिना बात के रोक दी जा रही थी, जो की बहुत ही सामान्य बात है, बस ये बात नहीं समझ आती की सिग्नल की बजाय स्टेशन पर क्यों नहीं रोकी जा सकती जो सिग्नल से कहीं ज्यादा सुरक्षित हो सकता है। लेकिन सरकार और प्रशासन को क्या? 1250 किलोमीटर के लिए पहले ही 22 घंटे का समय निर्धारित था लेकिन इस ट्रेन का रिकॉर्ड देखने पर पता चला कि 2 से 5 घंटे लेट होना साधारण बात है इस तरफ कोई ध्यान भी देने को तैयार नहीं। आखिर कैसे ट्रेन 57 किलोमीटर की एवरेज गति से चल सकती है जबकि सिर्फ 16 स्टेंड है सिर्फ दो स्टेशन पर दस मिनट रुकना था पांच स्टेशन पर पांच मिनट बाकी पर 2 मिनट, यानि स्टेंडिंग टाइम 62 मिनट का ही था फिर भी लेट होना समझ से बाहर की बात है। लेकिन जनता के समय की परवाह राजाओं को क्यों होने लगी। उनको जनता की याद पांच साल में एक बार चंद दिनों के लिए आ जाती है ये भी उनका अहसान ही होता है। ट्रेन अपने हिसाब से चल रही थी। तीनों ने खाना खाया। धीरे धीरे रात गहराने लगी थी। मोनू पर नींद ने धावा बोल दिया था लेकिन वो बार बार नींद से लड़ रहा था। कुछ ही देर में आखिरकार हार कर ऊपर की बर्थ पर सो हो गया। 


कविता खिड़की से बाहर देख रही थी और रवि बाहर देखती कविता को बड़े ध्यान से देख रहा था। अंधेरे में कहीं कहीं दिखती रोशनी देख के आंखों ने आने वाली चमक और फिर अंधेरे को देखते देखते उसे कविता पर बहुत प्यार आ रहा था। ये बचपना कहां अब कहां दिख पाता है। वो उसके पास बैठने के लिए उठा फिर कुछ सोच कर वहीं बैठ गया और कविता को देखते हुए कुछ लिखने लगा...


’वो देखो रात की चांदनी में सामने नदी कितनी चमक रही है।’ कविता ने बाहर दिखाते हुए कहा। 


’देखो ना क्या लिख रहे हो।’ कविता ने रवि के ना सुनने पर फिर बोला।


’देख लिया बहुत ही प्यारा लग रहा सब कुछ’ रवि ने कविता की आंखों में देखते हुए बोला।


’क्या देख लिया यहां नहीं बाहर देखो’ कविता ने रवि को मुंह बाहर की और घुमाते हुए कहा। 


’बाहर क्या है, जो है सब यहीं पर हैं इन्हीं आंखों में है। सारी दुनिया में कोई भी नजारा इससे प्यारा कैसे हो सकता है।


’इन नैनो से नैन लगा कर,


भूल ही जाऊं जग, कहता है’ रवि ने कविता के कानों के पास जाकर हल्के से कहा और गाल को चूम लिया।


’’ कविता ने उसके और करीब जाते हुए कहा।


तभी अचानक ट्रेन नदी के पुल पर ही रुक गई, कौन सी नदी थी पता नही चल पाया, लेकिन फैलाव काफी बड़ा था। 


’फिर से शुरू हो गए जनाब। तुमको तो बस एक मौका चाहिए, शुरू होने के लिए। जब देखो रोमांटिक हो जाते हो। ये घर नहीं है जनाब, ट्रेन है इसलिए जरा संभल कर रहो। बाहर भी देख लो दुनिया कितनी सुंदर है। ये नदी के पुल पर रुकी ट्रेन, दूर से आती नदी, जैसे धरती के दूर छोड़ से यहीं हमारे पास हमसे मिलने हो आ रही हो। देखो ट्रेन में कोई आवाज नहीं है तो लग रहा है जैसे घनघोर सन्नाटा है। रात का समय, दूर तक फैले केले के पेड़ों के बाग, नदी किनारे फैली रेत, सामने दूर आसमान में आधे से ज्यादा चांद। हजारों लाखों सितारे। देखो उधर इस चांद को, इसकी किरणें पानी पर ऐसे गिर रहीं हैं जैसे नदी के पानी पर गिर कर उसमे समाने के लिए सदियों से व्याकुल हो। यहां बैठे हुए लग रहा जैसे हम पानी पर खड़े होकर उसका स्वागत कर रहे हैं। कविता बता ही रही थी की ट्रेन में एक झटका लगा। और दोनो झटके से बहुत करीब आ गए दोनो की आंखें एक दूसरे में खो गई। तभी ट्रेन हल्के हल्के चलने लगी। अंदर सब कुछ ठहर गया था और बाहर का हर ठहरा नजारा जैसे चलायमान हो उठा था और सब कुछ पीछे की ओर जा रहा था।


कविता बच्चों की तरह रवि की गोद में सर रख कर लेट गई। और बोली ’कुछ सुनाओ न आज।’


रवि उसके बालों में अंगुलियों को फेरते हुए उसको देखने लगा। फिर उसने अपनी एक अधूरी कविता सुनानी शुरू की।


स्याह रात फैली है, तन्हा सा आलम,


कितना संभालूं, है भोला मेरा मन,


तुम्हें देखने का लगा चाव ऐसा,


तुम्हीं को मैं पा लूं ये चाहे मेरा मन।


वो देखो नदी का ये सुंदर नजारा,


स्याह रात, चंदा वो बहता शिकारा,


चांदी की चादर, सितारों की महफिल, 


वो फूलों की खुशबू, वो दिलकश नज़ारा,


चली आ रही मोतियों सी वो लहरें,


इन्हीं में अटकता उछलता मेरा मन।


तुम्हें देखने का लगा चाव ऐसा,


तुम्हीं को मैं पा लूं ये चाहे मेरा मन।


’ये तो बिल्कुल वैसे ही लग रही जैसे अभी देखा था। अभी लिखी क्या?’ कविता ने आंखें बंद किए हुए पूछा।


नहीं पुरानी लिखी हुई थी लेकिन इससे आगे नहीं लिख पाया था। रवि ने कविता को बताया। 


ठंडी हवा और बालों को सहलाने के कारण कविता को नींद आ गई और वो वहीं गोद में ही सो गई। थोड़ी देर बाद रवि ने उसको आराम से सुला दिया और खुद खिड़की के पास बैठ गया। कविता का सर उसकी तरफ ही था वो बीच बीच में उसके सर को सहला रहा था, कविता के चेहरे की ये मुस्कान बहुत दिनों बाद देख पा रहा था। रवि ट्रेन में नींद जल्दी नहीं आती थी। वो बैठे बैठे पुराने दिनों में खो गया....

क्रमशः


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