ये जीवन है (भाग 1-3)

दोस्तों ये एक सत्य घटना पर आधारित कहानी है, जिसमे एक लड़के रवि और उसके जीवन में आये उतार चढ़ाव की कहानी है। ये कहानी बहुत से लोगों की हो सकती है, हमारी हो सकती आपकी हो सकती है। मेरा प्रयास है जीवन के संघर्ष को आपके सामने प्रस्तुत कर सकूं। आशा है कि आप लोगों को कहानी पसंद आएगी।

रवि काफी सालों बाद अपने गाँव आया था। लंबे सफर के बाद यहां पहुंचे थे और जरा सा रिलेक्स हो रहे थे। कविता बहुत थक गई थी, लेकिन मोनू को आराम कहाँ। वैसे भी 5-6 साल के बच्चे नई जगह जाकर सोते नही हैं और जगह इतनी खुली खुली हो तो क्या कहने। थोड़ी देर बाद कविता समान व्यवस्थित कर ही रहे थी कि बाहर से मोनू के चिल्लाने की आवाज आई। कविता और रवि भागते हुए बाहर आये, देखा तो एक लड़का उससे बात करने की कोशिश कर रहा था। अजीब सी हरकतें पूरा चेहरे पर अजीब सा, मोनू शायद उसे अचानक देखकर बहुत डर गया था। कविता ने भाग कर उसे एक तरफ किया और मोनू को लेकर आ गई। लड़का उदास हो गया, शायद उसे बुरा लगा और लगभग पैर पटकते हुए वो वहां से भागने लगा। रवि ने उसे रोकना चाहा लेकिन वो मुंह बना कर भागता चला गया। उसके पीछे एक अधेड़ उम्र की महिला भी आ रही रवि ने उसको रोका तो उसने अजीब सी नज़र से उसकी तरफ देखा। 

रवि ने सयत होकर कहा 'मां है न तो बच्चे के डरने से डर गई होगी, माँ तो माँ होती है न।' 

उसने कुछ बोलना चाहा लेकिन बिना बोले चली गई। उसके चेहरे पर अजीब सी उदासी थी शायद कोई सवाल कोई शिकायत पर क्या? बड़ी अजीब सी आंखे थी जिनमें पता नहीं क्या लेकिन कुछ तो जरूर था। पूरी रात वही घटना रवि के खयालों में घूम रही थी। आखिर कौन था वो लड़का, और वो औरत क्या कहना चाह रही थी। काफी सालों बाद आने के कारण याद भी नहीं आ रहा था कि ये कौन थे, कभी इनको देखा भी है या नहीं। 

आज बिजली नहीं थी शायद रहती भी कम ही है जैसा देश के ज्यादातर गाँवों में होता है सरकार खंबे लगा कर और हफ्तों महीनों में कुछ घंटों तक बिजली देकर अपना विद्युतीकरण का टारगेट पा लेती है। सालों पहले बिजली के खंभे लग गए थे और एक मंत्री जी ने उसका शिलान्यास भी किया था लेकिन सालों तक उसपर बिजली की तार नहीं आ पाई। लेकिन दूर एक ट्रांसफार्मर लग गया था जिसमे बिजली के अलावा सब था लेकिन ये गाँव विद्युतीकरण को प्राप्त हो चुका था, जैसे इंसान जीते जी मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। लगभग सात-आठ साल बाद उसपर तार डाले गया और बिजली के दर्शन हुए। आपमे से जिसने स्वदेश फ़िल्म देखी होगी उसमे बिजली आने पर जो एक बुजुर्ग महिला बड़ी उम्मीद से बोलती है बिजली..... और बोलते बोलते बिजली फिर से गायब। फिर इंतज़ार और ये फ़िल्म वाला इंतज़ार नहीं कि हीरो पानी में कूदेगा पानी के बहाव को दुबारा शुरू करेगा और टरबाइन से बिजली फिर आ जायेगी। ये असल जिंदगी है। यही तो सारे गाँवों में होता है। बस हम शहर में बैठे बैठे सोचते है कि पूरा देश जगमग है। इसी मीडिया की बनाई मरीचिका जैसी सुनहरी तस्वीर को देख हम जरूरी चीज़ों के महत्व को बिल्कुल भूल गए हैं। सोचिये हम कितनी बिजली को बेकार करते हैं उसका हर्जाना भी शायद किसी गाँव, किसी घर को ही भुगतना पड़ता है। ये भी एक कारण है कि गाँव वाले बिजली नहीं पा पाते। खैर ये तो होता ही रहता है हमेशा। वैसे रवि पहले ही पूरा इंतजाम करके आया था बस कल सुबह सोलर पैनल लग जायेगा फिर कम से कम यहां बिजली तो मिलेगी ही रोशनी के लिए। वो तो अच्छा है कि ठंड का महीना है वरना मोनू का रहना तो नामुमकिन हो जाता। आजकल के बच्चे सरलता से दूर बस जीवन को आधुनिकता की चकाचौंध में  इतने डूब गए है कि जरा सी सहूलियत कम होते ही जीना दूभर हो जाता है, और उसमे तो कुछ कम ज्यादा हो भी जाये लेकिन गर्मी को तो बिल्कुल बर्दाश्त नही कर सकते। वैसे यहां गांव की गर्मी और शहर की गर्मी में बड़ा फर्क होता है। लेकिन फिर भी गर्मी होती तो है ही।

नेपाल सीमा से लगा एक छोटा सा गाँव जहां आधुनिकता का आगमन उस पैमाने पर तो हुआ नहीं लेकिन सड़क है जो शायद सालों पहले बनी होगी जो बस ठीक ठाक है वैसे ये सड़क डिस्ट्रिक्ट से नेपाल बॉर्डर तक सीधी जाती है फिर भी ये हाल। रवि थकान से सो नही पा रहा था और पुरानी यादों में डूब गया। जब हम शायद 5वीं क्लास की गर्मियों की छुट्टी में आये थे तब ये सड़क बन रही थी। तारकोल की काली सड़क। बड़ी सी भट्टी में तारकोल मिलाना, रोड़ी तारकोल को गर्म करके बिछाया जाना। बड़ा मजा आता था देखते रहते थे फिर जहां तारकोल गर्म होता था वहां काफी तारकोल गिरा रहता था तो हम सब कैसे उसको उठा लाते थे। उससे बहुत काम होते थे घर के। जैसे बाल्टी की पेंदी में छेद हो गया तो उसको लकड़ी के चूल्हे पर गर्म करके उसपर तारकोल का छोटा टुकड़ा डाल कर उसको पिघलते हुए देखना, और फिर बाल्टी में से पानी निकलना बंद हो जाना। वो टुकड़े सालों तक शायद गाँव के सभी घरों में रखे हुए रहे। फिर सालों सड़क की मरम्मत नही हुई। करीब 20 साल बाद पता चला कि वो सड़क तो पिछले सालों में 8-9 बार बनी और बहुत बार उसकी मरम्मत हुई है, लेकिन ये सब कागजो में था। हमारे देश में शायद किसी दिन हम सबको ये भी पता चले कि देश की आबादी चांद से एक-दो बार घुमा कर वापस ला दी गई है तो भी शायद हमको आश्चर्य न हो। इसी तरह कितनी बार पुनःनिर्मित हो चुकी सड़क गड्ढों में पड़ी हुई कहीं अंतिम सांस गिन थी थी। फिर शायद हाल में उसकी मरम्मत हुई थी। इसलिए आजकल सड़क के हालात बस कामचलाऊ हद तक ठीक ही हैं। 

मोनू थकान के कारण और दिन भर खेलकर बहुत थक गया था, ऊपर से अंधेरा। बाहर जुगनुओं का मेला लगा था जिसे वो शायद पहली बार देख रहा था। इतने सारे टिम टिम करते उड़ते जीव। व्व पकड़ना चहहता था लेकिन उसके नन्हे हाथ कहाँ उनको पकड़ पाते। रवि ने एक जुगनू उसके हथेली में दिया तो वो उसको लेकर उड़ने लगा था। हाथ मे टिमटिमाती रोशनी। उस समय शायद मोनू या किसी भी बच्चे को लगेगा पूरी दुनिया उसकी मुठ्ठी में है। यही हाल उसका था। कवि कविता के पास कभी रवि के पास दौड़ रहा था। उसकी थकान शायद उड़नछू हो गई थी। फिर वो जुगनू से बात करता रहा और थोड़ी देर में उसको छोड़ दिया। बच्चा मन से न थके लेकिन सफर की थकान और अब यहां पहुच कर की गई उछलकूद से शरीर तो थक ही जाता है, और वो आज जल्दी सो गया। कविता और रवि भी जल्दी सो गए।

अचानक रात को 2 बजे मोनू ने कविता को उठाया। 'मम्मा मम्मा' 
क्रमशः

2

पिछले भाग में अपने पढ़ा कि रवि पत्नी कविता और बेटे मोनू को लेकर बहुत सालों बाद गाँव आता है। आधी रात के बाद अचानक मोनू कविता को उठाता है। अब आगे..…

'क्या हुआ बेटा, सुसु आयी क्या?' कविता ने पूछा।

'नहीं मम्मा, भूखी लगी।' मोनू उठकर बैठ गया था।

'क्या खायेगा। बिस्किट या भुजिया' कविता ने मोनू को गोद के बैठाते हुए पूछा।

'तब कुत' तुतलाते हुए मोनू ने कहा। वो आधी नींद में ही था।

मोनू को रोशनी भी चाहिए थी। खाने के लिए कविता ने बैग से बिस्किट और भुजिया दी। रवि भी तब तक उठ गया था। उसने कविता के हाथ से दोनों चीजे ले कर मोबाइल की लाइट में चेक करके फिर मोनू को खाने को दी। 

कविता को अजीब लगा और उसने रवि से पूछा 'क्या चेक कर रहे हो।'

'कुछ नहीं' बोलकर रवि मुस्कुरा दिया।

'बताओ न क्या हुआ पहले क्या देखा और अब मुस्कुराहट क्यों' कविता ने रवि के पास बैठते हुए पूछा।

ऐसे ही एक बात याद आ गई बचपन की। चलो सुनाता हूं तुमको।

जब छोटा था उस समय अलग ही मज़ा था गांव आने का। दो दिन लगते थे। महीनों पहले टिकट की बुकिंग करवाते थे। फिर ये वो हज़ारों तैयारी। किसी उत्सव से कम नहीं होता था। वो कुछ 15-20 दिन लगभग हर साल आते थे। फिर समय के साथ ये समय 2 साल, 3 साल और बढ़ता ही गया। अब देखो शायद 7 साल बाद आया हूं। चलो वो किस्सा सुनो जिसपर मुझे हंसी आ गई। मैं यही कुछ 5-6 साल का था। उस समय हम गर्मी की छुट्टी में गाँव आये हुए थे। उस दिन मुझे खेलते खेलते नींद जल्दी आ गई। सब खा पी कर सो गए। उस समय रात को सिर्फ लालटेन जलती थी। मुझे रात में भूख लगी तो उठकर खाने को बोला। उस समय शायद घर मे मीठी पूरी या गुंजिया थी जो मां ने उसे निकाल कर खाने को दे दी। मैं नींद में था खा कर सो गया। सुबह उठा तो मेरा पूरा चेहरा, होठ सब बुरी तरह सूजे हुए थे। नाक भी, गाल भी सब कुछ ऐसा हो गया था पता नहीं चल रहा था क्या हो गया। 

सब परेशान थे, मुझे क्या हो गया। फिर जो रात को खाया था उसको चैक किया तो उसमे लाल चींटियां लगी हुई थीं। उन्हीं चींटियों ने रात को मेरे मुहँ का ये हाल कर दिया था। अचानक आज मोनू के वैसे ही भूख लगने से मुझे वो बात याद आ गई इसलिए मैंने चैक किया। कविता सुनकर मुस्कुराने लगी। उसे रवि की बातों पर बहुत प्यार आ रहा था, कितना केयर करता है न ये हम दोनों की। बड़े प्यार भरी नज़रों से वो रवि को देख कर मुस्कुरा रही थी। उसे अपने ऊपर रश्क भी हो रहा था।

'क्या देख रही हो मुझे खाने का इरादा है क्या।' रवि ने छेड़ते हुए पूछा।

'नहीं, मैं क्यों खाने लगी तुमको। चीटियाँ हैं तुम्हारे ऊपर।' कविता ने भी उसको उसी अंदाज में जवाब दिया।

'मुझे इतना दर्द हो रहा तुमको मजाक लग रहा' रवि ने गाल पर हाथ फेरते हुए कहा।

'क्या हुआ' कविता हड़बड़ा कर बोली।

'चींटियों का दर्द महसूस होने लगा है एक चींटी काटती तो कितना दर्द होता है न' रवि ने कहा।

'ओह्ह ये बात है मेरे बेबी का मुहँ चींटियों ने काट लिया था उसका दर्द आज हो रहा है।' कविता ने बड़े प्यार से बोला।

'हाँ सच में, बहुत सारी थी यहां गाल पर काटा था।' रवि ने बोला। 

पुच्च, गाल पर चूमते हुए कविता ने कहा 'लो अब ठीक।'

'यहां नाक पर भी' रवि ने खुश होते हुए कहा।

'पुच्च..... लो ये भी ठीक बस हो गया।' कविता हंसते हुए कहा।

'नहीं नहीं, यहां होठों पर भी।' रवि ने और शरारत भरी नज़र से कविता को देखते हुए कहा।

'बड़ी शरारत सूझ रही है तुमको, पागल समझा है, मुझे पता है तुम्हारा दर्द और तुम्हारी चीटियाँ, इससे ज्यादा दर्द मैं ठीक नही कर सकती। जाओ पानी से कुल्ला कर लो, मर जाएंगी सारी चींटियां।' कविता ने बनावटी गुस्से से मुहँ बनाते हुए बोला।

'ये तो गलत है न, तुमने ही तो इतने प्यार से शुरू किया अब मैं थोड़ा बहक गया तो गुस्सा भी, सही है, इसी वक़्त के लिए लोग कहते हैं उल्टा चोर कोतवाल को डांटे' रवि ने और शरारती अंदाज में कहा।

'डांटे, अच्छा मैं चोर नज़र आती हूँ। तुम तो बस रहने ही दो। जाओ नहीं करनी तुमसे बात। कविता बनावटी गुस्से में मुहँ घुमा कर लेट गई।

'अरे अरे बाबा, सुन न, ऐसे नहीं बोला। मजाक कर रहा था।' रवि ने उसको मनाते हुए बोला।

'बोल दिया न सो जाओ, नहीं करनी तो नहीं करनी।' कविता मुहँ घुमा कर मुस्कुरा रही थी।

'अच्छा परेशान करके हंस रही हो' रवि एक झटके में ही दूसरी तरफ आ गया और उसकी शरारती हंसी देख कर बोला।

'वो वो' कविता ने हंसी छुपाने की कोशिश की।

'चल चुप हो जा, बड़ी आई वो वो करने वाली' रवि ने बोला और दोनों हंसने लगे।

दोनों लेट कर बातें करने लगे। दोनों थके तो थे ही। दोनों जल्दी ही नींद के आगोश में चले गए।
क्रमशः

3

पिछले भाग में अपने पढ़ा कि रवि पत्नी कविता और बेटे मोनू को लेकर बहुत सालों बाद गाँव आता है। आधी रात के बाद अचानक मोनू कविता खाने के लिए उठाता है। रात को थके हुए तीनो सो जाते है और अगली सुबह.....


अगले दिन सुबह मोनू को तो जैसे पर लग गए थे। वो कभी इधर जाता कभी उधर। उसने तो जैसे न बैठने की कसम खा ली थी। दलान के पास ही बहुत सारे केले के पेड़ थे। कुछ नई कोपलें भी आ रही थी और दो पेड़ों पर केले लगे हुए थे। जो अभी पके नही थे लेकिन पकने की तैयारी में ही थे।

'पापा देखो ये कैसे बनाना जैसे हैं ग्रीन ग्रीन।' मोनू ने आवाज देते हुए बोला।

'ये वही बनाना है बेटा, बनाना का पेड़ है ये।' रवि हाथ पकड़ कर उसको पेड़ के पास ले गया और बताया'

'लेकिन ये तो ग्रीन है, बनाना येलो होता है।' मोनू ने अपने बालक बुध्दि के हिसाब से सवाल किया

'हां बेटा अभी ये कच्चे हैं पकेंगे तो येलो हो जाएंगे।' रवि ने उसको समझाते हुए कहा

'मुझे खाना है, अभी ग्रीन ही खाना है।' मोनू जिद करने लगा।

अरे बेटा ऐसे नही खा सकते इसको, अभी ये नहीं खाया जा सकता, हाँ इसकी सब्जी बन सकती है बस। मैं दूसरा बनाना लाकर दे दूंगा अभी' रवि उसको टालने की कोशिश करने लगा।

'नहीं नहीं, मुझे ये ही खाना है।' अब तो मोनू का बाल हठ शुरू हो गया था।

'अच्छा ठीक है।' रवि ने हार मानते हुए कहा। 

केले पकने की अवस्था मे तो आ ही गए थे, तो उसने केले को काट लिया और उस पेड़ को भी गिरा दिया।

'पापा पेड़ क्यों काट दिया, ये गलत बात है।' मोनू ने कहा।

'बेटा एक बार बनाना काटने के बाद पेड़ भी काट दिया जाता है। नही तो वो खुद सूख जाता है। इसको काटने के बाद नए बेबी बनाना ट्री आ जाएंगे और उनमें फिर से नए बनाना आएंगे और मोनू फिर से खायेगा।' रवि ने मोनू को नए छोटे पौधों को दिखाते हुए बताया।

'अच्छा तो ये और बनाना देगा।' मोनू ने मासूमियत से पूछा

'हां बेटा। अब ये बताओ ये तो कच्चा है, कैसे खाओगे?' रवि ने पूछा।

'सच मे पापा ये तो निकल ही नही रहा। अब क्या करें।' 

'चलो इसको पकाते हैं। शहर में इसमे दवाई मिला कर इसको पकाते है। हम इसको नेचुरली पकाएंगे। चलो।' रवि केले को उठा कर बाग की तरफ चल देता है और मोनू दौड़ते हुए उसके पीछे हो लेता है।

बगीचे में रवि ने केलों को रखा और आंगन से कुदाल और केले के कटे पेड़ के सारे पत्ते लेकर बाग में आ गया। मोनू भी उसके पीछे पीछे इधर उधर कर रहा था। उसके लिये सब नया था। रवि भी ये सब शायद पहली बार अकेले कर रहा था। बचपन मे उसने ये सब किसी उत्सव के समय करते हुए ही देखा था। रवि ने गड्ढा करना शुरू किया। 

'पापा ये क्या कर रहे हो। ये मिट्टी हटा कर क्या करोगे? और ये केले के पत्ते क्यों लेकर आये हैं हम?' मोनू के सवाल बन्द ही नही हो रहे थे और हों भी तो क्यों हों।

'बेटा देखते जाओ, अभी हम गड्ढा करेंगे, फिर आगे क्या क्या होगा देखते जाओ। तुमको सब पता चल जाएगा।' रवि मोनू के सवालों पर मुस्कुरा कर काम करने लगा।

कविता भी उनके पीछे वहीं आ गई क्योंकि मोनू ने कुछ खाया नहीं था तो वो दोनों के लिए आलू के पराठे बना कर लाई थी, ये मोनू को बहुत पसंद थे।

लो तुम दोनों यहां लगे हो। ब्रेकफास्ट तो कर लेते, और ये क्या मतलब आते ही केले काट लिए। मतलब थोड़ा रुका नही जाता। 

'अरे मोनू जिद कर रहा था केला खाना है और यही ग्रीन वाला, कोई और नहीं।' रवि ने बोला।

इधर मोनू चुपचाप पराठे खाने लगा और इतनी मासूमियत से मुहँ फेर कर बैठा था कि लग रहा था कि जैसे उसने कुछ किया ही नहीं। कविता उसको देखकर मुस्कुरा दी और बोली।

'तुम चुप ही रहो मोनू का नाम लेकर खुद के मन का करते रहते हो। कोई कुछ न बोले इसलिए इसका नाम ले लिया बस। बच्चा है तो इसको कौन कुछ बोलेगा।' कविता मुस्कुरा कर बोली।

'सच्ची मम्मा, पापा ही कह रहे थे कि ये बनाना का पेड़ है, इसको काटने के बाद पेड़ काट देंगे, फिर उसमे से बेबी ट्री निकलेगा फिर वो बड़ा होकर और बनाना देगा। फिर उन्होंने झट से बनाना काट दिए। पेड़ भी मैं कितना दुखी हो गया था बनाना ट्री के कटने से, और पापा सारे पत्ते लेकर यहां आ गए साथ मे मुझे भी बनाना को भी। अब मुझे एक बनाना खाना था वो तो दिया नहीं और ये काम कर रहे है। मैं बेचारा कैसे इतने बनाना खा सकता हूँ न।' मोनू अपनी धुन में बोलता जा रहा था, जिसको सुनकर सब जोर से हंस दिए।

'पता है मम्मा को बाबू, ये पापा न, एक बनाना दिया नहीं और तेरा नाम ले रहे हैं। मम्मा सब जानती है।' कविता ने मोनू को गोद मे बैठाते हुए बोला।

'ठीक है अब पूछना मुझसे, और मांगना बनाना, अब सब मैं अकेला खाऊंगा। किसी को कुछ न मिलेगा। अब मुझे किसी से बात ही नही करनी' रवि ने बनावटी गुस्से में बोला।

'पापा जी, आप अकेले खाओगे तो पेट फूल जाएगा और फट जाएगा।' मोनू ने खड़े होकर पेट फुलाने की एक्टिंग करते हुए बोला। और सब फिर से जोर से हंस दिए।

बातों बातों में ही रवि ने गढ्ढा खोद दिया जिसमें सारे केले के साथ रखे जा सकें। उसमे केले के पत्तो को अच्छी तरह से बिछा दिया और केले उसमे रख कर उसको केले के पत्तो से ही अच्छी तरह ढक दिया और एक छोटे मटके जिसके पेंदी में छेद था, में धान का भूसा अच्छी तरह से भर कर और और उसको उल्टा करके केले के पत्तो के बीच से रख दिया। उसको इस तरह से रखा कि भूसा गिरे नहीं और मटके का छेद ऊपर मिट्टी से बाहर रहे। अब बाकी गड्ढे को मिट्टी से भर दिया। 

'अब ये मटका क्यों लगा दिया पापा और बनाना कब मिलेंगे, उनको तो चीटियाँ खा लेंगी।' फिर से मोनू के सवालों की बारिश शुरू।

'बेटा हम मटके से धुआं और गर्मी अंदर बनाना को देंगे तो वो धीरे धीरे पक जाएंगे। अभी देखना कैसे।' रवि ने बोला।

'कैसे कैसे?' मोनू का वही बचपना वाला सवाल।.

'रुको अभी दिखाता हूँ।' थोड़ी सी आग लाकर उसने वो आग उस छोटे छेद से अंदर डाल दी और फूंक मारकर अंदर के भूसे को सुलगाने लगा। जैसे ही धुआं निकलता वो छेद को ढक देता। इसी तरह कुछ देर करने के बाद चेक किया कहीं से धुआं निकल तो नही रहा है।

'अब ये बनाना दो दिन में पक जाएंगे। तब इसको निकलेंगे और खाएंगे।' इसी तरह कुछ देर करने के बाद उसने बोला। लेकिन इसमें ये धुआं सुबह और शाम को करना पड़ेगा। 

'सच्ची, लेकिन दो दिन। तब तक मोनू क्या खायेगा।' मोनू ने पेट पर हाथ फेरते हुए कहा।

'खाना खायेगा और क्या।' कविता ने कहा और सब फिर से हंस दिए।

क्रमश:

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