नारी

"अपराजिता" संग्रह में शामिल लेखकों को हार्दिक बधाई। आप सभी के सहयोग से ये संग्रह प्रकाशित हो पा रहा है इसके लिए सभी लेखकों को धन्यवाद। संपादक मोनिका सिंह "मोह", सह संपादक मीना सिंह "मीन", चेतना लाबास, और प्रियंका गहलौत:"प्रिया कुमार" को भी संग्रह को मूर्त रूप देने के लिए शुभकामनाएं। जब इस पुस्तक के लिए कुछ लिखने का समय आया तो मेरा कुछ लिखने का विचार बिल्कुल नहीं था। मैं अक्सर ऐसे समय पर कुछ नहीं लिखता जब किसी विषय पर लिखने का मन न हो। लेकिन एक घटना के बाद खुद को लिखने से रोक नहीं पाया...

हम कितना भी प्रचार करें, कि हम अधुनिक हो गए हैं, मानवीय इतिहास और विकसित देश होने के मार्ग पर तेजी से भाग रहे है, लेकिन ये एक ऐसा झूठ है जिसपर हम अन्धविश्वास करके बैठे हैं। नारीवाद का उदय इसी मिथ्या का एक रूप है। ठीक वैसे ही जैसे पुरुषवाद। असल में ये दोनों ही झूठ हैं और अपने आप को दूसरे से ऊपर रखने की मुहिम का हिस्सा हैं। मेरा मनना है कि सभ्यता, जीवन या सृष्टि जो भी कह लीजिए, के निर्माण और क्रियाशील होने में नारी और पुरुष समान रूप से भागीदार है न कोई बड़ा है न छोटा है। जो भी इसमें किसी को ऊपर या नीचे देखने या दिखाने का उपक्रम करते हैं वो स्वयं को भी छल रहे होते है और औरों को भी। इसी लिए मैंने नारीवाद और पुरुषवाद दोनो को मिथ्या कहा। 

यकीन मानिये नारीवाद, समाजवाद इत्यादि बातें सिर्फ एक सेफ्टी वाल्व की तरह काम करती हैं ताकि लोग इन बातों में उलझ कर मुख्य समस्या पर ध्यान ही न दें। नारी की दुर्दशा होने पर वो आवेग में आकर अपने अधिकार छीन न लें इसलिए नारीवाद की परिकल्पना की गई होगी। ताकि उन्हें उत्थान का दिवस्वपन दिखा कर ऐसे ही दबाया जाता रहे। वैसे पुरुषवाद को स्थापित करने में स्त्री का हाथ पुरुष से कतई कम नहीं है। इसी तरह अपना प्रभुत्व बचाने के लिए नारीवाद की परिकल्पना किसी पुरुष ने ही की हो तो कोई आश्चर्य नही होना चाहिए।

वैसे अपनी दुर्दशा के लिए हम स्वयं दोषी होते है और आरोप दूसरे पर डाल देना हमारा मानवीय धर्म है। नारी के दुर्दशा के लिए पूरी तरह भले न हो लेकिन अधिकतम की सीमा तक नारी खुद दोषी है। आखिर क्यों उसे देवी बनने की इतनी लालसा है? क्यों वो साधारण इंसान बनना ही नहीं चाहती? उसे क्यों लगता है कि  त्याग पीड़ा, इत्यादि सिर्फ उसका काम है? यदि काम है तो फिर ये बताने की जरूरत है कि तुम पुरुष ये कर ही नहीं सकते? जब ये कहा जाता है तो कहने वाला और सुनने वाला दोनो इस खेल में फंस चुके होते हैं। जैसा मैंने पहले कहा कि दोनों एक दूसरे के पूरक है विपरीत नहीं। 

अब मैं उस घटना पर आता हूँ जिसकी वजह से मैंने लिखने का सोचा। घटना आधुनिक नारी की है जो पढ़ी लिखी है। 

विवाह के बाद जब अनुरुद्ध और निशा ने बच्चे का प्लान किया तो अनिरुद्ध और निशा, दोनो की मम्मी ने एक ही बात बोली "बेटा ही होना चाहिए।" 

पढ़ी लिखी निशा, क्योंकि बचपन से इसी माहौल में पली थी, जैसा अधिकतम महिलाओ के साथ होता है का भी मन स्वस्थ बच्चे की माँ बनने से ज्यादा बेटे की माँ बनने का था।  दोनो की मांए शायद इतना पढ़ी न भी हो लेकिन एक पोस्ट ग्रेजुएट लड़की का भी ये ही सोचना, आधुनिक होने के हमारे भरम के महल को तोड़ देता है। अब ऐसे में अनिरुद्ध भी यदि बेटे की ही चाह रखे और बेटी होने पर निशा को 10 बातें सुना दे तो इसमें अनिरुद्ध की गलती ज्यादा है या निशा और दोनो मांओं की, ये सोचने का काम आप कीजिए। ऐसी बातें घर का कोई छोटा लड़का सुन रहा हो तो उसकी कल्पना कीजिए क्या वो बड़ा होकर किसी लड़की को सम्मान देगा, और यदि कोई लड़की सुन रही हो तो क्या वो कभी अपने आप को इंसान मान पाएगी? वो भी एक निशा बन जाने को मजबूर हो जायेगी। चलिए अब हम अपनी बात पर लौटते हैं..

मम्मी ने अनिरुद्ध को लड़की या लड़के का पता लगवाने के लिए बोला। मतलब लिंग की जांच। जो कानूनन अपराध है। अनिरुद्ध ने डॉक्टर से बात की और उस महिला डॉक्टर ने कुछ पैसों के बदले बता भी दिया कि निशा के गर्भ में बेटी है। ध्यान दीजिए यहां और अधिकतम जगह गैनोक्लोजिस्ट महिलाए ही होती हैं। अगर ये लिंग के बारे में बताया जाता है तो अधिकतम जगह ये कौन बताता होगा इसको समझ लेना कोई मुश्किल काम नहीं। किसी को यकीन न हो तो उत्तर पश्चिम भारत के राज्यों में जनसंख्या अनुपात देख ले।

"गर्भ में बेटी है" की खबर से घर मातम का माहौल था। जैसे पिताजी टपक गए हों। खैर बातें हुई किसी ने एक बाबा का पता बताया जिसकी दवाई से किसी को 3 लड़कियों के बाद बेटा हुआ, ऐसे कई किस्से बाबा के साम्राज्य का हिस्सा थे। वो गारंटी से बेटा होने की दवाई देते थे। किस्से तो ये भी प्रचलित थे कि कितने ही लोगों के बेटी का पता लगने पर भी उन्होंने दवाई से लड़की को लड़के में बदल दिया था। सबकी बांछे खिल गईं और जल्दी ही निशा सासू मां के साथ वहां पहुंच गई। 

बड़ा सा पांडल और उसमे हजारों अंधभक्त, मेरा मतलब भक्त। इन बाबाओं की एक बात समझ नही आती। ये बाबा उपदेश देते हैं "कुछ साथ नहीं जायेगा सब यहीं रह जायेगा" और कोई भी बाबा ऐसे आयोजनों में आने का लाखों रुपए से कम चार्ज नहीं करता। कुछ बड़े वालों के चार्ज तो 20-30 लाख भी हैं। ये हजारों करोड़ के काले सफेद कारोबार में अपना शुभ योगदान देते हैं। चलिए हमें क्या करना। हमें तो पता है कि ये पैसा हाथ का मैल है, आज है कल नहीं होगा। सब मोह माया है। निशा को बाबा से आशीर्वाद भी मिला और दवाई भी। दान पात्र में कुछ दान देने के लिए बोला गया था, लेकिन दान पात्र के पास बैठे बाबा के मैनेजरों ने साफ कह दिया "11 हजार से कम दान नहीं देना बाकी ज्यादा आप कितना भी दे सकते हो हम कोई जोर नहीं डालते। बेटे होने की दवाई का दान इतना ही है।" तभी पीछे से भोपू पर बाबा की आवाज आई। "किसी का भला करो ये धरती मोह माया है, ज्यादा से ज्यादा दान करो, दान से परलोक सुधर जायेगा।" इधर मैनेजर बोला "भक्त तो लाखों भी डाल जाते हैं।" खैर 11 हजार दान देकर आशीर्वाद भी खरीदा और मिट्टी भी खरीदी, मेरा मतलब दवाई आ गई। 

साइंस और सबसे बड़ी शक्ति परमेश्वर को मात दे देने की शक्ति रखने वाले बाबा के कहे अनुसार सब किया गया। पूरे 7-8 महीने जच्चा की खूब सेवा हुई ताकि वो स्वस्थ बच्चा पैदा करे, मतलब लड़का पैदा करे। इतनी बातों में एक बात तो सही हुई, अगर बाबा नही होते तो पक्का एबॉर्शन करवा कर लड़की को मार दिया जाता। आखिर वो दिन आ ही गया जब ईश्वर की सृष्टि को धत्ता बता देने की शक्ति रखने वाले बाबा का चमत्कार सामने आना था। सबने सोच रखा था, नवजात लड़के को कुछ दिनो बाद बाबा के आशीर्वाद के लिए ले जायेंगे। पूरे 21 हजार का दान भी देंगे। निशा निश्चिंत थी, खुश भी उधर दोनो माताएं अत्यंत प्रसन्न। देर रात निशा ने शिशु को जन्म दिया। जब बच्चे को देखने दोनो माताएं अंदर गई तो उनके होश उड़ गए। "ये तो लड़की है। हमारे बेटी को तो बेटा होना था, ये लड़की किसकी है।" चूंकि उस समय सिर्फ एक ही डिलिवरी हुई थी तो कोई बदला बदली होने का चांस भी नहीं था। दोनो के आंखों में आंसू आ गए। अगले सुबह जब निशा को पता चला तो वो भी सदमे में आ गई। तीनो हॉस्पिटल के रूम में देर तक रोते रहे। लेकिन समाज के नाक बचाने लिए बाकी सारे कार्यक्रम किए गए। बोला गया बेटी लक्ष्मी होती है। किसी ने उस बाबा का नाम फिर नहीं लिया। लेकिन कुछ समाज में कुछ लोगों ने कानाफूसी की कि बाबा के बताए उपाय नहीं किए होंगे, किसी ने कहा दान दक्षिणा मन से नहीं दी होगी।

आखिर क्यों? बेटी नहीं चाहिए के उदघोष को लेकर चलने में महिलाएं किसी भी तरह पुरुष से पीछे नहीं होती तो क्या ये कहने में कुछ गलत भी नहीं की स्त्री के हालात के लिए स्त्री की जिम्मेदारी पुरुष से कहीं ज्यादा है। 

नारी को अधिकार के दान की जरूरत नहीं और न ही देवी होने के लालच से उसका उद्धार होगा। उसे खुद को मानव समझना होगा। उसे मानना होगा वो शक्ति है, उसे अधिकार देने वाला पुरुष या ये समाज कोई नहीं होता। ये अधिकार सिर्फ उसी को नहीं सभी मानव को जन्मजात प्राप्त हैं। बस उसका इस्तेमाल "क्या कहेंगे लोग" की बीमारी को जड़ से मिटा कर करना होगा। जो भी लड़की को कम दर्जे का बताए, उसके अधिकारों का हनन करे, चाहे वो मां हो या बाप, भाई हो या समाज, कोई जरूरत नहीं उसको आदर देने की। भले ये करना नितांत अनैतिक महसूस हो और भले ये देवी होने के अहसास को झुठलाता हो, लेकिन जो कोई भी किसी को बराबर का इंसान भर होने के अधिकार से वंचित कर दे रहा हो तो ऐसे परिवार और समाज में देवी बनकर रहना है या एक इंसान। निर्णय आपका है। लक्ष्मी, दुर्गा, लक्ष्मीबाई, के गीत गा लेने और ये झूठ दिल में पाल लेने से कि जीवन देने की शक्ति प्रकृति ने सिर्फ नारी को दी है। ये खुशफहमी का ऐसा रोग है जिसका कोई निराकरण नहीं और ये नारीवाद की स्थापना का मूल वाक्य है। प्रकृति ने जीव को जन्म देने की शक्ति पुरुष और स्त्री दोनो को दी है, दोनो के सम्मिलित प्रयास के बिना किसी को जन्म दे देना न पुरुष के लिए संभव है और न स्त्री के लिए। जो ऐसा कहे वो आपको उल्लू बनाने के अलावा कुछ और नहीं कर रहा।

धर्म में नारी को शक्ति का केंद्र माना गया है। किसी धर्म में उसके पैरों के नीचे जन्नत कही गई है तो किसी में कुछ, लेकिन उसको पुरुष से कमतर तो कहीं नहीं कहा गया। मैं धर्म की बात कर रहा हूं, ईश्वर के ठेकेदारों द्वारा बनाई कुरीतियों की नही। ईश्वर की शक्ति नारी रूप में ही उसके साथ है। मेरी एक कविता की कुछ लाइन के साथ मैं अपनी बात समाप्त करूंगा।


कैद में रखकर मुझे न, ऐसे तो भगवान बनाओ,
हक जो मेरे दे मुझी को, ऐसे न अहसान जताओ,
दर्द जो मैंने सहे हैं, सहने की बस शक्ति मुझमें,
जान कर निर्बल मुझे न, अपनी शक्ति से डराओ।

खुद दिया मैंने जो तुमको, प्रेम का अधिकार वो था
कोमल थे मन भाव मेरे, प्रेम का आधार वो था,
तुम व्यर्थ ही दान मेरा, दमन का स्वीकार समझे,
चरणों में परमेश्वर खुद, मेरा तो संहार वो था।
तुच्छ है शक्ति प्रदर्शन, तुच्छता से बाज आओ।
जान कर निर्बल मुझे न, अपनी शक्ति से डराओ।

शिव ब्रह्मा हों या विष्णु, सब मेरी ही राह धरते,
मेरा ही एक नाम लेकर, राम के थे शर चलते,
मुझसे ही तो सारी शक्ति वो सुदर्शन पा रहा था,
मेरी ही आंचल में सारे, शक्ति के थे धाम पलते,
व्यर्थ मिटा देने की मुझको, इच्छा न मन में सजाओ
जान कर निर्बल मुझे न, अपनी शक्ति से डराओ।

कैद में रखकर मुझे न, ऐसे तो भगवान बनाओ,
हक जो मेरे दे मुझी को, ऐसे न अहसान जताओ।

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