हे मानव
कलयुग का ये समय कठिन है,
मानव दानव से न भिन्न है।
है घनघोर तिमिर सा छाया,
दानवता ने शीश उठाया।
अब हर ओर गुरु क्रंदन है,
जो पापी उसका वंदन है।
हे माधव! तुम तो कहते हो,
घात न तुम जन पर सहते हो।
हे राघव! क्यों भूल गए प्रण,
हर हाल में हो शरणागत रक्षण?
क्या शिव-शक्ति रूठ गई है?
वाणी गीता की झूठ गई है?
क्या अब वो अवतरण न होगा?
क्या पापों का क्षरण न होगा?
क्या अधर्म अब जीत सकेगा?
अमर धर्म का दीप बुझेगा।
क्या नारी की लाज लूटेगी,
निंद्रा केशव की न खुलेगी?
क्या भक्तो पर जुल्म ढहेंगे,
शिव के न त्रिनेत्र खुलेंगे?
जब राजा होंगे व्यभिचारी,
ब्रह्मदंड की क्या लाचारी?
नियम नए क्यों बने यहां हैं,
त्रिशूल, चक्र, ब्रह्म छुपे कहाँ हैं?
हे नरसिंह प्रह्लाद हितकारी!
हिरण्यकश्यपु का दम्भ है भारी।
पंचजन्य ललकार करो फिर,
पिनांकी टंकार करो फिर।
परशुराम फिर परशु उठाओ,
हनुमान फिर पाप जलाओ।
हे पुरुषोत्तम! टूट रही नित,
मर्यादा के पाठ पढ़ाओ।
हे कृष्ण! शिशुपाल बहुत हैं,
सुदर्शन के दर्श कराओ।
नीलकंठ विषपान करो फिर,
जग को अमृत दान करो फिर।
हे शक्ति! कुछ दान करो बल,
अत्याचारी हो निशदिन निर्बल।
वीणा से वो राग बजाओ,
ज्ञान भरो अज्ञान मिटाओ।
हे लक्ष्मी! उपकार करो अब
निर्धन जन की राह धरो अब।
हे मानव! शुभ कर्म करो बस,
अत्याचारी से न डरो बस।
कुछ भी देव के हाथ नही है,
कुछ भी नही जो साध्य नही है।
कुछ हो बस रुकना नही है,
काल से डर कर झुकना नही है।
हो सत प्रण तो आना होगा,
भाग्य को शीश झुकाना होगा।
भाग्य को शीश झुकाना होगा।
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