आओ राजनीति से देश को बचायें...

आज देश में राजनिति का स्तर दिन प्रतिदिन बहुत तेजी से गिर रहा है। देश के लोगों के बीच मनभेद पैदा किया जा रहा है। आज देश में दो ही तरह के लोग है एक तथाकथित रूप से देशभक्त हैं। जो 32% वोट के साथ देश के 68% लोगों को देशद्रोही साबित करने में जुटे हैं वो भी सिर्फ इस आधार पर क्योकि वो वैचारिक रूप से उनके समर्थक नहीं।, दूसरे वो सब जो उनके खिलाफ हैं, अगर राज्यवार देखा जाये तो महाराष्ट्र, हरियाणा, राजस्थान, मध्यप्रदेश, कश्मीर देशभक्त राज्य हैं इसी प्रकार दिल्ली, बिहार, बंगाल सबसे बड़ा देशद्रोही राज्यों में हैं। इन सभी को पाकिस्तान जाना चाहिए। भारत हमेशा से वैचारिक विभिन्नता वाला देश रहा है लेकिन कभी एक मत वाले ने दूसरों को देशद्रोही नहीं कहा। ऐसा होना निश्चित रूप से बहुत भयावह स्थिति की और संकेत देता है जो सामाजिक सहिष्णुता के कम होने पर बहुत विकराल रूप ले सकती है। हम उस स्थिति को क्यों ला रहे हैं, कौन है इसके पीछे?

यह विशुद्ध रूप से राजनितिक फायदे को सौदा रहा है, सत्ता में  चाहे कोई भी हो उसने लोगों के सामाजिक, धार्मिक सौहार्द को दांव पर लगाकर हमेशा अपना मकसद पूरा किया है। क्योंकि 4 साल के सत्ता काल में उनका जनता से किये वादों को पूरा करने से कोई सरोकार ही नही रहता। सत्ता काल के अंतिम वर्ष में उनके पास नये नारों को गढ़ने, येन केन प्रकरेण आगला चुनाव जीतने की भुमिका बनाने का काम बचता है। उस समय भारत में कुछ ही मुद्दे बचते हैं जो इतने कम समय में जनता को बहका सकें। जैसे कि कश्मीर, पाकिस्तान पर हमला, जात पात, हिन्दू-मुस्लिम-सिख, गरीबी (गरीब) हटाओ, किसानों का उद्धार इत्यादि। भले ही सत्ता में रहते हुए तोई इन मुद्दों पर कुछ न करें मगर चुनाव आते ही सब ये वादा जरूर करते हैं कि अबकि बार जीता दो तो करेंगें। भाई पहले क्सों नहीं किया? सही मायनों में इन मुद्दों ने कई बार हारते हुए दलों की नैया पार लगायी है। 1984, 1991, 2004, 2014 के चुनाव विशुद्ध रूप से इसी मकसद से लड़े गये और आगे भी लड़े जायेंगे। यह सारा राजनितिक खेल सिर्फ और सिर्फ जनता की अशिक्षा का फायदा उठाकर किया जाता है।

अब आप सोचिये!

* क्यों 70 साल की आजादी के बाद भी हम सभी बच्चों को शिक्षा की व्यवस्था का अच्छा मूलभूत ढाँचा खड़ा नही कर पाये।

* क्यों कुछ धर्म और जातियों में शिक्षा का स्तर न्यून है,
क्यों हम विगत कुछ वर्षों में शिक्षा का बजट निरंतर कम कर रहे है जो आबादी और महंगाई के अनुसार तेजी से बढ़ना चाहिए।

* क्यों इस देश में इक मंत्री, सांसद के लिए कभी सचिवों की कमी नहीं रही लेकिन देश में हजारों स्कूल लाखों टीचर्स की कमी के कारण सही से काम नही कर पा रहे।

* क्यों देश और राज्य की सरकारे बिगड़ती हुई कानून व्यवस्था को अपने राजनितिक लाभ के लिए अंतिम अवस्था तक बिगड़ने देती है। ताकि उसका अधिक से अधिक लाभ ले सके।

* क्यो राजनितक पार्टी के नेताओ पर से उनकी पार्टी की सरकार आने पर सभी मुकद्दमें वापस ले लिए जाते हैं। सरकार बदलते ही क्यों किसी के अपराध कम ज्यादा हो जाते हैं।

क्यों क्यों और क्यों....ऐसे हजारों सवाल है जिनका जवाब सिर्फ और सिर्फ जनता दे सकती है लेकिन,...उसको इतना सोचने देने की बजाय चुनाव धर्म, जाति, पैसा, ताकत के बल पर लड़े और जीते जाते हैं।

यकिन मानिये इसमे धन की या योग्य लोगों की कमी कोई मुद्दा नहीं है, यह सिर्फ एक प्लान के तहत है कि लोगों को किसी कीमत पर शिक्षित न होने दिया जाये, और अगर कोई शिक्षित होना चाहे तो उसे इतना महँगा कर दो की उच्च शिक्षा संभव न हो। सबसे पहले जो शिक्षा के सभी सरकारी माध्यमों को इतना बेकार कर दिया जाये की वहा मिलने वाली शिक्षा का स्तर समाप्त हो जाये।  इसके दो फायदे हैं--

1 - एक तो देश में शिक्षा का स्तर कम होगा, और जो होंगे वो सिर्फ साक्षर होंगे  शिक्षित नही। इसलिए देश का सरकारी शिक्षा कार्यक्रम साक्षर करता है  शिक्षित नही ताकि अपना नाम भी हो और नेताओ को वोट लेने में आसानी हो कोई ऐसा सवाल ही न पूछ सके जिसका जवाब देना मुश्किल हो।

2 - सरकारी शिक्षा तंत्र के सामने प्राईवेट शिक्षा का ऐसा चमकता महल खड़ा किया जाये कि गरीब जनता जो अपने बच्चों के लिए स्वप्न देखना चाहती है, अपनी गाढ़ी कमाई उस काम पर खर्च करे जो सरकार को करने चाहिए। ये सभी महल इन्हीं नेताओं और उनको लोगों द्वारा संचालित होते हैं और पैसा कमाई का ऐसा बिजनेस है जिसमें कभी मंदी नही आती। शहरों मे यह योजना काफी कामयाब भी है।

आखिर जब शिक्षा मौलिक अधिकार है तो क्यों कुछ बच्चे मोटा पैसा लगाकर और कुछ सरकारी सरकारी स्कूल में बिना शिक्षक के शिक्षा ले रहे है। ये समानता और शिक्षा दोनों मौलिक अधिकारों का उलंघन है। क्योकि सरकार, जिसकी जिम्मेदारी सबके अधिकारों की रक्षा है, की नज़र में सब बराबर है। तो कैसे गरीब बच्चों के अधिकारों का उलंघन होता है। क्यों हर स्कूल में शिक्षा का तरीका अलग है, माध्यम अलग है, सिलेवस अलग है। क्यो सरकारी स्कूल में टीचर नहीं, क्यों वहां शिक्षा को माध्यम क्षेत्रिय भाषा है और प्राईवेट में अंग्रेजी। क्यों क्यों और फिर क्यों। सवाल हजारों हैं और जबाव सिर्फ एक।

जब तक सरकार एक पार्टी की न होकर जनता की नहीं होगी, जब तक उसका हर विचार, कार्य चुनाव जीतने की मकसद से न होकर जनता की भलाई के मकसद से नही होगा, जब तक चुनाव सिर्फ चुनाव की तरह नही लड़े जायेंगे, जब तक शिक्षा समान नही होगी तब तक ये चलता रहेगा।

कही अभी हाल के चुनावो के बाद उठायें गए मुद्दे जिनसे समाज में डर का माहौल बनाने की कोशिश की गई वो आने वाले बड़े चुनावों के लिए टेस्टिग तो नही थी जिससे जनता को बरगला कर चुनाव जीतने का रास्ता साफ कर लिया जाये। काश मेरी ये आशंका पूरी तरह गलत साबित हो लेकिन अगर ये सही हुई तो देश के लिए आने वाले कुछ साल भयावाह होंगे।

इस स्थिति से देश को सिर्फ और सिर्फ हम बचा सकते है। आओ देश को बचायें, समाज को बचायें, धर्म को बचाये, खुद को, खुद के परिवार को बचायें।

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