हर्ष विकंपित हो रही हैं..p 289

हर्ष विकंपित हो रही हैं, मन में लो सारी व्यथाएं 
राम तुम आए हो गूंजें, प्रेम से सब दस दिशाएं।

हम व्यर्थ का ज्ञान भर मन, तेरा-मेरा कर रहे हैं,
राम तुम कर दो कृपा बस, ज्ञान ऐसा भूल जाएं।

कुछ नहीं ऐसा जगत में, जिसमे मेरे नाथ न तुम
कैसे मानूं आ रहे अब, सदियों तक तुम थे न आए।

हम सुनो! अज्ञान को ही, ज्ञान अपना कह रहे हैं,
ज्ञान गीता का भुला कर, रच रहे कलि की ऋचाएं।

तुम प्रभु जो सोच भर लो, सृष्टि नव निर्माण होगी,
क्यों प्रभु अभिमान इतना, फिर रहा सर को उठाए।

नारायण तुमको किया है, दूर नर से खेल देखो,
खेलता कलि खेल निष्ठुर, कैसे मन खुद को बचाए।

क्या धरा के पुण्य उदय को, कल्कि तक रुकना पड़ेगा,
राम कहो हनुमान से तुम, पाप सब मन के मिटाएं।

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