किसी निगाह को 280

किसी निगाह को देखा भी, चाहा भी बताया भी नहीं,
कोई खालिश भी नहीं, साथ अपना साया भी नहीं।

हाँ जमाने में ये ही चर्चा, कि दीवाना हूँ तेरा,
बात ये ओर, कभी खुद को बताया भी नहीं।

अब भी चाहे तो, मेरी हस्ती ही हिला दे वो एक,
बस मेरी चाह पर सर, उसने हिलाया भी नहीं।

हाँ जा, तू भी चली जा, कब है रोका मैंने,
जिंदगी रूठी है, मौत का साया भी नहीं।

बस मुक्कदर के भरोसे से ही होगी ये खत्म,
उम्र भर साथ चले ऐसा कोई पाया भी नहीं।

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