तुम आ मिलना कान्हा

जीवन का अनुरागी स्वर जब, घुट घुट कर बहना चाहे,
जीवन का अंतिम अवसर, कोई दीप नही जलना चाहे,
घूमिल हों जब सब इच्छाएं, गीत जगत के बेसुर हों, 
ओ कान्हा तुम आ मिलना, जब कोई नहीं मिलना चाहे।


जब इस आभासी दुनिया में, भावशून्य सब हो जाए,
जब ईश्वर का नाम कठिन, होठों पर मेरे थम जाए,
दीप वो अंतिम प्रज्वलित हो, जब धूप धूम्र का ज्वार उठे,
जब जीवन के अंतिम क्षण में, गूंज के सब चीत्कार उठे,
मीत जो सच्चा बैठ निकट, कह झूठ ये मन छलना चाहे,
ओ कान्हा तुम आ मिलना, जब कोई नहीं मिलना चाहे।


जब अंतिम गीतों की अंतिम, पंक्ति का उच्चारण हो,
जब सत्य झूठ और इस जीवन के, पापों का निर्धारण हो,
जब जीवन सुर सारे बिखरें, एक अलौकिक झंकार उठे,
मृत्यु सखी से अंतिम मिलन का, साँसों में जब ज्वार उठे,
जब महामाया का मोह मुझे, सद्कर्म विमुख करना चाहे,
ओ कान्हा तुम आ मिलना, जब कोई नहीं मिलना चाहे।


जीवन में जो मिल न सका वो, शायद जीवन बाद मिलेगा,
कर्मों का सब लेखा जोखा, मुझको यकीन हर हाल मिलेगा,
पाप की जितनी बोई फसलें, पुण्य के जितने बीज गिरे,
फलित वो होंगे ही आखिर, जीवन भर जो हैं कर्म किये,
भोग लूँ सारे पाप के फल, जब पुण्य उदित होना चाहे,
ओ कान्हा बस तुम मिलना, जब सारा जग मिलना चाहे।

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