न राधा सा प्रेम है कान्हा
न राधा सा प्रेम है कान्हा,
न मीरा सी मुझमें भक्ति।
न उद्धव सा ज्ञान मैं जानूं,
बस एक जानू मैं आसक्ति।
न अनुरागी, न वैरागी,
मन का मारा पाप का भागी।
हे पतितों के पाप विनाशक,
हमको दो थोड़ी सी भक्ति।
पुरुषों में तुम ही पुरुषोत्तम,
दीपों में भी सूर्य हो तुम हीं।
पर्वत में तुम ही हिमालय,
नारी में माँ शक्ति हो तुम हीं।
ध्वनि में तुम ओम हो केशव,
ज्ञान में विणापाणी तुम हीं।
प्रेम में तुम राधा हो मोहन,
भक्ति में बजरंगी तुम हीं।
रचनामयी तुम ब्रह्म विधाता,
नीलकंठ महाकाल हो तुम हीं।
तुम भजनों में मीरा के पद,
नाम में सियापति राम हो तुम हीं।
पुस्तक में गीता, रामायण,
वेदों का एक सार हो तुम हीं।
जल में अमृत जल गंगा का,
मन के सब सुविचार हो तुम हीं।
हे मनमोहन, हे गिरधारी,
हे जीवों के पालनहारी,
हे नंदलाला, हे गोपाला,
मुरली मनोहर, तारणहारी,
न उच्चारण, न कोई कारण,
न मन्त्रो की अभिव्यक्ति,
हे पतितों के पाप विनाशक,
हमको दो थोड़ी सी भक्ति।
न साधु सा धैर्य है मन में,
न वीरों का तेज है तन में,
न प्रकृति सा परहितकारी,
न दीपक सा ध्येय जन्म में,
न भजना, न तजना जानूँ,
पूज्य विधि न तप ही मानूँ,
सब जीवों तुम न दिखते,
बस खुद को सर्वोत्तम मानूँ।
प्रेम मगर साकार हुआ जब,
तुझसे एकाकार हुआ जब,
मन के सारे अरमानों को,
बस एक तू स्वीकार हुआ जब।
जीवन-मरण में तुमको पाएं
इन चरणन में शीश झुकाएं
गीत तुम्हारे, भजन तुम्हारे,
ओ प्रीतम हम गाते जाएं।
चहुं ओर प्रपंच का जंगल,
मानव के दुर्भाग्य घने हैं,
हे तमहर हे रश्मि के सागर,
हे मीरा के गिरधर नागर,
तेरी दया बिन कुछ न मिलता,
न तो शक्ति, और न भक्ति,
हे पतितों के पाप विनाशक,
हमको दो थोड़ी सी भक्ति।
तुम शिव तुम ही ब्रह्म विधाता,
तुममें सारा विश्व समाता।
तुम लक्ष्मी, तुम विद्या, शक्ति,
भक्त भी तुम, तुम ही हो भक्ति।
माखन चोर, ये मोह चुरा लो,
मुझको अपने चरण लगा लो।
गीत ये मन बस तेरे गाये,
मन में ऐसा नाद उठा दो।
स्वांस में तूं ही आये जाए,
ये जग मुझको न बहकाए।
हे ज्योति तुम मन पर छाओ,
तम और सारे पाप मिटाओ।
हर लो प्रभु सब कष्ट हमारे,
शरण पड़े हम दास तुम्हारे।
हे गोविंदा, राधामोहन,
कमलनयन हे देवकीनंदन,
श्याम सलोने, हे नारायण,
परहितकारी हे मधुसूदन,
ऋषिकेश हे प्रभु परुषोत्तम,
पद्मनाभ प्रभु हे सर्वोत्तम,
तेरी माया तू ही जाने,
तुझसे बड़ी न कोई शक्ति।
हे पतितों के पाप विनाशक,
हमको दो थोड़ी सी भक्ति।
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