सांझ में दिन सिमट गया है
ये आंखें तेरी झुकी हुई है,
या सांझ में दिन सिमट गया है,
बहुत पुरानी, तुम्हारी यादें,
फिर घाव कोई खुरच गया है।
कहूं ये कैसे हुआ है लेकिन,
तुम्हे अभी तक भुला न पाया,
जग की बीती हजार रातें,
समय मेरा ही ठिठक गया है।
वो बहकी बहकी सी बात अक्सर,
कभी तुम्हीं से, दिन रात करते,
वहीं पुरानी हमारी आदत,
जमाने को ये खटक गया है।
ख्याल जब भी तुम्हारा आया,
दिल पर काबू नही है मुझको,
तुमने पा ली, तुम्हारी मंजिल,
दिल ये मेरा अटक गया है।
तुम्हारा दिल भी दुखा ही होगा
जरा मुझे तुम बस माफ करना,
खता तुम्हारी कोई नही थी,
मेरा ही मन भटक गया है।
kathabimb@gmail.com में प्रकाशन हेतु भेजी गई।
12 जून 19
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