बाढ: वरदान से अभिशाप तक

बाढ़ ऐसा शब्द जिसका अर्थ तबाही तबाही और सिर्फ तबाही समझ आता है लेकिन क्या सच मे नदियों की बाढ़ समस्या है या ये समस्या इंसानों ने खुद बनाई और इसे अब कुछ लोग अपने फायदे के लिए इसका दुरुप्रयोग कर रहे है। क्योंकि हर वर्ष की बाढ से कुछ स्वार्थी लोगो की मोटी कमाई होती है। इसमें नेताओ से लेकर अफसर सब शामिल है।

भारत की बात करें तो लगभग देश की सभी नदियों को सदियों से पूजा जाता रहा है और सिर्फ गंगा -यमुना को ही नही देश की हर नदी को श्रद्धा से मां कह कर ही बुलाया जाता रहा है फिर चाहे वो जीवनदायिनी गंगा हो, गोदावरी, कावेरी, और उसकी सहायक नदियां हो या बिहार का शोक "कोसी" कोसी मईया। तो क्या आज सारी नदियों पर भी कलयुग का प्रभाव पड़ गया है, क्या शिव की जटाओं से निकलने वाली, पतित पावनी, जीवन दायनी गंगा और उसकी सहायक नदियां ऐसी मां बन गई है जिनकी प्यास उसके बच्चों के खून से बुझती है, या हमने नदियों को इतना मजबूर कर दिया है कि उनके पास कोई और चारा ही नही बचा इस भयानक खेल को खेलने के अलावा। क्या सच मे विगत वर्ष में आई बाढ़ नदी द्वारा किया गया उत्पात था या मानव को एक चेतावनी थी कि सुधार जाओ। माँ कभी कभी बच्चों को सुधारने के लिये विकराल रूप धारण कर लेती है, वैसा करने करने पर मजबूर न करो।

जब 6th क्लास के बाद पढ़ा तो पता चला कि गंगा-यमुना का मैदान विश्व के सबसे ज्यादा कृषि उत्पादकता वाला मैदान है, और गंगा का डेल्टा तो उससे भी ज्यादा।  फिर समझ आया कि चूंकि गंगा-यमुना और उसकी सहायक नदियां के हज़ारों सालो से बाढ़ के साथ साथ अपनी गाद इस मैदान मे फैलाने से इस मैदान का निर्माण हुआ, और ये भारतीय संस्कृति की जन्मस्थली बनी। लेकिन अब क्या हुआ कि बाढ़ तबाही का दूसरा नाम है। क्यों?

20-25 साल से हर साल बस ये ही समाचार आता है कि असम, बिहार, उड़ीसा, उत्तराखंड, यूपी में बाढ़ से इतना नुकसान उतना नुकसान, आज़ाद भारत की बात की जाए विगत दशकों में हर साल केंद्रीय अनुदान जो हज़ारों करोड़ होता है, NGO, लोगो द्वारा दिया गया दान, राज्य सरकार का भी हज़ारों करोड़, फसल का नुकसान, लोगों का समान, दुबारा बसने में लिया गया कर्ज या इस्तेमाल किया गया पैसा तो कुल जमा खर्चा, कम से कम 1-2 लाख करोड़ हो ही जाता होगा। इनमे मारे जाने वालों की जान की कीमत, क्योंकि इसका अंदाजा किसी को नही है, को शामिल नहीं किया। सरकार के हिसाब से जान की कीमत कुछ हजार या लाख है, क्योंकि सरकार के पास जनसंख्या की कमी नही जो कुछ सौ, हज़ार, या लाख के मरने या परेशान होने से कोई फर्क पड़े, इतने तो कुछ दिनों में फिर पैदा हो जाएंगे।

हम हर साल खर्च किये गए धन को आज की मुद्रा के हिसाब से देखेंगे और औसत निकले तो कम से कम 1 लाख करोड़ तो हर साल खर्च होता ही है और इस हिसाब से हमने 70 साल में 70 लाख करोड़ खर्च किये, आप अंदाजा लगा सकते है कि इतनी धनराशी से क्या क्या नही किया जा सकता। और हर साल हम खर्च की गई राशि की ज्यादा से खर्च की जाती है। लेकिन आज तक कोई समाधान नही। क्यों? क्योंकि बाढ़ का आना दीवाली की तरह है कुछ लोगों के लिए।

सबने बचपन मे दीवाली के अगले दिन बचे अनफुटे पटाखों का बारूद को कागज पर निकाल कर कागज में आग लगा कर बारूद जलाने का खेल जरूर खेला होगा, फुलझड़ी जरूर जलाई होगी। और बम भी फोड़े होंगे। तीनो मैं बारूद होता है और सब में धुआं आग, प्रकाश होता है लेकिन एक मौलिक फर्क है तीनो में। कागज पर रखा बारूद बहुत धीमी आवाज से जलता है उसकी आवाज न के बराबर, जला और फुस से खत्म। फुलझड़ी, उसमे बारूद को ऐसे कुछ तत्वों के साथ मिलाया जाता है और लोहे की छड़ के साथ ऐसा बांधा जाता है कि वो देर तक जलती है, उसमे से फूल, सितारे भी झड़ते है रोशनी भी ज्यादा, लेकिन आवाज बहुत कम। विकास ऐसा ही होना चाहिए। लेकिन जब हम उसी बारूद को सुतली या किसी और तरीके से बांध देते है तो उसी या उससे कम बारूद में ही इतना जोरदार धमाका होता है कि दीवाली पर पटाखे/बम को कम ताकत से बंधा जाता है, और इसी तरह तोप के गोले, बम इत्यादि का निर्माण उसको बंधने में लगी ताकत के अनुसार होता है। इसी तरह हम नदियों की बाढ़ को देखे तो, पहले नदियों की बाढ़ कागज के बारूद की तरह आती थी, आई, फैली, और अपनी उपजाऊ गाद फैला कर वापस, मानव के लिए  अमृत वर्ष समान। धीरे धीरे मानव ने अपनी जरूरतों को बढ़ाया, जो स्वाभाविक है, और उस बारूद की तरह आने वाली बाढ को बांध कर फुलझड़ी बनाने लगा, नहरें बनाई। पानी को पूरे वर्ष तक रोकने लगा। दूर  दराज के हिस्सों मैं भी नदी का पानी पहुंच गया, खेतो का विस्तार होने लगा, खेती की निर्भरता वर्ष पर से कम होने लगी। सब सुंदर फुलझड़ी जैसा। फिर मानव ने विकास के दानव का आह्वाहन किया। बड़े बांध बनाये। नदियों को चारों और से बंधा गया, दोनों तरफ ऊंचे बाढ़ रोधी बांध बनाये गए, सामने पन विधुत योजना के बांध बनाये गए। नदियों का बाढ़ क्षेत्र संकुचित होने से हर साल मैदानों में फैलने वाली गाद उसके तल मैं जमा होने लगी और नदियां उथली हो कर और भयानक हो गई। वो अपने बाढ तटबन्धों को तोड़ने लगी। यह भी मानव ने तटबंधों को अपने हिसाब से तोड़ा। शहरों और धनवानों ने अपने आप को बचाने के लिए तटबन्धों को गरीब गांव वालों के पास टूटवाया और खुद को बचाया। नदियां पूरी तरह मजबूर है, उनमे जल संचय क्षमता समाप्त हो चुकी है। और हर वर्ष धीरे धीरे आने वाली बाढ़ अब सूनामी की तर्ज पर आती है क्योंकि तटबध टूटने पर पानी का वेग किसी सूनामी से कम नही होता और सरकार हर वर्ष राहत सामग्री पहुंचा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है। और उस राहत सामग्री में शायद 10% ही जरूरत मंदो तक पहुंचता है। ये बाढ़ का सतत आते रहना कुछ लोगों की कमाई का निर्बाध संसाधन बन गया है। वो अथाह पैसा अथाह सहायता सामग्री, कौन इससे हाथ धोना चाहेगा। क्यों कोई ये चाहेगा की बाढ़  आए।

वैसे भी चिंता उस चीज़ की होती है जो आपके पास नगण्य मात्रा मे हो, हमारे पास मानव जीवन इतना, और नदियां इतनी ज्यादा है कि उसकी कोई अहमियत ही बाकी नही रह गई। अगर ऐसा जर्मनी, कनाडा जैसे देशों में होता जो अपनी जनसंख्या के नकारात्मक वृद्धि से जूझ रहे है या साउदी अरब जैसे देशों मैं होता जहां पीने के  पानी की ज्यादा समस्या है तो तो शायद वो इसका ऐसा प्रबंध कर लेते की कभी बाढ़ से एक व्यक्ति परेशान नही होता, न ही वहां नदियों के पुनुरूथान, सफाई के नाम पर दिए गए लाखो करोड़ के फंड का गबन किया जाता। क्योंकि जनसंख्या के कम होने की वजह से वो एक एक व्यक्ति की कीमत जानते है। भारत मे ज्यादातर समस्याओं का एक मूल कारण ये ही सोच है कि क्या हुआ कुछ लोग मारे भी जाएंगे तो। ये सोच भारत के सब कर्णधारो का देश के हर वर्ग के प्रति है, चाहे वो किसान हो, सैनिक हो, बच्चे हो, रेल यात्री हो, सड़क यात्री हो या सामान्य घर मे बैठा कोई।

हमारी नज़र में  जनसंख्या सबसे बड़ी समस्या है। यहां का हर नागरिक समस्या है हम स्कूल की किताबो में बच्चों को ये ही पढ़ाते है, "जनसंख्या एक समस्या"। चीन उसी जनसंख्या को वर्कफोर्स में बदल कर हमारे बाद आजाद होकर भी दुनिया के अग्रिम देशों में है और हम किसानों को मारने दे रहे है, पढ़े लिखे कुशल लोग जितने हमारे पास है शायद चीन में नही तब भी। सारी समस्या सोच में है। इसके लिए हमे नदियों पर और नागरिकों पर अपनी सोच बदलनी पड़ेगी, और नदियों और मानव को समस्या न मान कर उनको सम्मान देना पड़ेगा उसके बाद भारत को सर्वश्रेष्ठ होने से सम्पूर्ण विश्व एक होकर भी नही रोक पायेगा और न हमे किसी भी वस्तु के लिए किसी के आगे गिड़गिड़ाने की जरूरत पड़ेगी। सिर्फ भाषण देने से या अथाह पैसा खर्च करना कोई हल नहीं, हल सोच में बदलाव से होगा। जो कि संभव नहीं लगता। क्यूंकि जैसे ही आप सर्वसाधारण के लिए सोचेंगे देश की पूंजीपति ताकतें, वो लोग जिनका समस्या बने रहने मे फायदा है आपको सत्ता से हटाने का प्रयास करेंगे। और कोई सता का मोह त्याग कर समस्या हल करना चाहेगा तो ये कम से कम वर्तमान में संभव नहीं लगता। सता का मोह त्यागने के लिए राम या भरत जैसा त्याग मन में होना चाहिए। और ये कलयुग है, कोई सतयुग, त्रेता या द्वापर युग नहीं।

हमे विकास को फुलझड़ी की तरह खूबसूरत बनाना है ना कि बम की तरह विनाशकारी।।

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