संवेदनहीनता

"सरकार ने दी किसानों को भारी राहत, रूपये 20.25 प्रति एकड़ की भारी सहायता". "किसानो की सभी समस्याओं का समापन....4 एकड़ के 81 रूपये का चैक." शायद बैंक जाने में ही 30-40रूपये खर्च हो जायेंगे, और ATM से 40 रूपये निकाल कर अपना कर्ज चुकाने के बाद 6 महीने का राशन लायेगा.

यह भले ही मजाक लगे मगर यह हमारी सरकारी व्यवस्था में संवेदनहीनता का ऐसा सच है कि जिसके हजारों सबूत मिलते रहते हैं. पिछले सालों में 2 रूपये, 12 रूपयों की मदद की न जाने कितनी खबरें आती रही. मीडिया उसको अपनी टीआरपी बढ़ाने के हिसाब से दिखाता है कि उससे क्या फायदा है और हम एक चटपटी खबर की तरह उसको सुनते रहे, कोई मन ही मन सरकार को कोसाता है, कोई बोलाता है कितनी बेकार सरकार है, तो किसी का मानना होता है कि हमारा क्या जाता है....

मगर यह बात सिर्फ एक की नहीं हमारे उस अन्नदाता की है जो अपना सब कुछ झोंक कर भी तिल तिल मरने को मजबूर है. रोज आत्महत्या. आजादी का हम कितना भी जश्न मना लें  मगर किसान साहूकार के चुंगल से निकले नहीं है, पहले साहूकार थे आज बैक है, ये उससे भी क्रूर साबित हो रहे हैं.

सरकार नई योजना लाती है, वाहवाही लूटती है, और प्रचार में इतना खर्च कर देती है कि शायद उतना खर्च कुल योजना को लागू करने में न होता हो. सभी का मकसद सिर्फ ये बताना है कि मैने ये किया मैने वो किया मुझे वोट दो 10 साल में सब ठीक कर दूंगा. वाह रे राजनेता.

अभी एक नई योजना "फसल बीमा योजना" आई जो बहुत अच्छी है, जिसका श्रेय सरकार ने खूब लिया मगर जमीन पर उसका क्या प्रभाव है, बड़े किसान लाभ ले रहे है मगर जो किसान पहले के कर्ज मे डूबा है, फसल खराब हुई वो प्रीमियम कहां से लायेगा.

क्यों नहीं सरकार छोटे मझोले किसानों का सारा कर्ज माफ कर देती? आखिर बैंकों का अभी 1 लाख 14 हजार करोड़ का लोन डूब गया है जो सब बड़े लोगों का था. विजय माल्या एक छोटा उदाहरण है. तो किसानों का कर्ज माफ करना क्यों मुश्किल है. कही इसका संबंन्ध पार्टी को, नेताओं को मिलने वाले पार्टी फंड से तो नहीं? अगर सरकार 3-4 सालों का बीमा प्रमियम खुद दे कर्ज माफ कर दे और किसान को फसल का उचित मुल्य और क्षतिपूर्ति मिले तो वो 3-4 साल में खुद प्रमियम देने लगेगा.

सोचिये पिछले वर्ष सिर्फ 89% बरसात हुई, इसका कतई ये मतलब नही कि पूरे देश में 11% कम बारिश हुई, यह एक औसत भर है, कही कही सिर्फ 10% ही बारिश हुई होगी, लातूर जैसे इलाकों में  और आसाम में बाढ़ आई ही थी. तो बाढ़ को पानी कहां गया. काश हम उसको संभाल पाते.

कुछ सालों पहले एक योजना आई थी जिसका मकसद देश से सूखा हटाना था, नदियों को जोड़ने की योजना. यह एक एेसी योजना थी जिससे सही मायनो में देश के किसानों का भला होता मगर उसका कोई नामलेवा नहीं. अटल जी के समय आई इस योजना का शायद उनकी अपनी पार्टी की सरकार में कुछ न हो पाये. यह वो योजना है जिससे देश भर में भले हम पानी न भी पहुंचा पाये मगर लाखों करोड़ो लीटर बरसाती पानी जो बह जाता है उसका संग्रहण कर सकते हैं.

सोचिये जब लाखों किलोमीटर की नई नहरें बनेंगी तो भू जलस्तर बढ़ेगा, हम बाढ़ के समय बिहार/असम में होने वाली तबाही को रोककर उस पानी को महाराष्ट्र लातूर जैसे सूखाग्रस्त ईलाकों में भेज पायेंगे, देश में मानसून की अनियमितता को रोक पायेंगे. यह कोई कठिन कार्य नहीं है बस इच्छा शक्ति की जरूरत है. जब दशरथ मांझी, एक अकेला पहाड़ काट कर रास्ता बना सकता है तो सरकार चाहे तो सिर्फ एक-दो साल में देश से सूखा-बाढ़ की समस्या खत्म कर सकती है. और हमारे पास मनरेगा जैसी योजना के साथ नहरो का निर्माण कर सकते हैं और मिनिमम 100 दिन के बदले 250 दिन का रोजगार दे सकते हैं. ये नहरें राजस्व का भी बड़ा जरिया बन सकती हैं. और हर वर्ष सूखे और बाढ़ से निपटने में खर्च होने वाले हजारों करोड़ रूपयों को किसी और काम में लगाया जा सकता है. कहीं ये हजारों करोड़ पैसों में होने वाला भ्रष्टाचार की चाहत तो इस योजना को नहीं रोक रही.

सरकार को सभी कामों को करते समय अपना या पार्टी का फायदा भूल कर विशुद्ध रूप से जनता के फायदे को ध्यान रखना चाहिए. यही रामराज्य है, कुछ और नही...

Comments

  1. BJP koi bada project lene ki layak nahi. Adha kha jayenge. AAP laakar JANLOKPAL lagoo karneke baad koi bhi public aur desh ka bhala ke projects befikr le sakte hain.

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